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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेम की प्राप्ति का साधन-उत्कट चाहप्रेम कितने दिन में मिल सकेगा, इस बात की चिन्ता छोड़कर उनका निरन्तर चिन्तन कैसे होता रहे-इसीकी चिन्ता करनी चाहिये। नाम-जप, गुणानुवाद, श्रवण-मनन, स्वरूप का ध्यान-ये सभी इसमें सहायक हैं। परंतु निर्भरता का भाव बहुत अधिक सहायक होता है। निर्भरता का अर्थ प्रेम प्राप्ति की उत्कण्ठा का ह्रास नहीं है। उत्कण्ठा बढ़ती रहे, भगवान के प्रेम के लिये प्राण तड़पते रहें, हृदय में विरहाग्रि की ज्वाला धधक उठे; परंतु साधन एकमात्र निर्भरता हो। अपने पुरुषार्थ का बल कुछ भी न रहे। प्राणों की आकुल तड़प, हृदय की प्रदीप्त अग्नि ही निरन्तर तड़पाती और जलाती रहे तथा वह तड़पन और ताप ही जीवन का आधार भी रहे। रक्त-मांस को खा डालने वाली यह आग ही प्राणों की रक्षा करती रहे। बड़े सौभाग्य से इस आग में जलते हुए, इसी आग को प्राणाधार बनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ करता है। उस समय यही चाह हुआ करती है कि प्राणाधार! यह आग कभी न बुझे और उत्तरोत्तर बढ़ती रहकर, मुझे जल-जलाकर सुख पहुँचाती रहे। प्रेमी की प्राप्ति का तो मुझे अधिकार ही नहीं। मेरा तो अधिकार बस जलने का है। जलता ही रहूँ। सच्ची चाह का स्वरूप
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