श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. वरुण-विजय
श्रीसत्यभामा जी ने जब श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका से सेना लेकर शोणितपुर को प्रस्थान करने लगे थे तब कहा था- सुना है कि वाणासुर के पास समुद्रीय गायें हैं। उनका दूध पीकर मनुष्य कभी वृद्ध नहीं होता। वृद्ध भी युवा हो जाते हैं। उनमें-से कोई एक गाय मेरे लिए सरलता से मिले तो लेते आवें किन्तु यदि इससे पौत्र-अनिरुद्ध को लाने में विलम्ब होता हो तो इस बात को भूल जायें।' अनिरुद्ध का विवाह हो गया। भगवती पार्वती ने स्वयं उषा को हृदय से लगाकर विदा किया और उसे मयूर जुते रथ पर अपने करों से बैठा गयीं। श्रीबलराम, प्रद्युम्न, सात्यकि प्रभृति नव-दम्पत्ति को लेकर यादववाहिनी के साथ द्वारिका के लिए चल पड़े। श्रीकृष्णचन्द्र गरुड़ की पीठ पर बैठे। गगन में पहुँचने पर समुद्र तट पर सैकड़ों रंग-बिरंगी गायें दीख पड़ी। रोमरहित होने पर भी वे बहुत सुन्दर थीं। पृथ्वी पर और समुद्र के भीतर समुद्र तल पर वे समान रूप से चल सकती थीं। समुद्रीय तृण उनका प्रिय आहार था।[1] गरुड़ जैसे ही नीचे उतरने लगे उनको आते देखकर वे गायें समुद्र के जल में प्रविष्ट हो गयीं। स्पष्ट थी कि वे स्थल चर प्राणियों से अपरिचित अथवा अत्यल्प परिचित थीं और पृथ्वी पर समुद्र तट छोड़कर दूर नहीं जाती थीं। स्थलीय बड़ा प्राणी देखते ही वे समुद्र में उतरकर नीचे तल पर चली आती थीं। अवश्य ही समुद्र तल पर वे जल के भीतर तीव्र वेग से भाग सकती होंगी और जहाँ तिमि, तिमिंगल, अष्टापद अथवा समुद्री सिंह[2] जैसे हिंसक प्राणी होते होंगे वहाँ नहीं जाती होंगी। समुद्र तल में बहुत अधिक पर्वत हैं, वन हैं और अनेक वनस्पति हैं। इन गायों के चरने अथवा विश्राम के लिए पृथ्वी से कम सुविधा सागर के भीतर तलीय भाग में नहीं है। समुद्र के भीतर तल-प्रदेश में स्थान-स्थान पर मीलों विस्तीर्ण गुफाएँ हैं और वहाँ समुद्र का जल सदा शान्त रहता है। भले ऊपर कितना भी बड़ा अन्धड़ चले और उत्तुंग तरंगें उठ रही हों। गरुड़ के लिए समुद्र अगम्य नहीं था। वे क्षीराब्धिशायी भगवान नारायण के वाहन समुद्र में भीतर तक पहुँचना उसका सदा का अभ्यस्त कर्म हैं किन्तु गायें अरक्षित नहीं थीं। गरुड़ जैसे ही समुद्र में गायों के पीछे पहुँचे, वरुणदेव के सैनिक शस्त्र-सज्ज गायों की रक्षा के लिए आ गये। वरुणदेव असुराधिप है। उन्होंने राजसूय यज्ञ करके दैत्य, दानव, राक्षसों को जीतकर चक्रवर्ती सम्राट पद पाया है। उन जलाधिप के सैनिकों में जहाँ अष्टापद मकर, शार्क, जलीय महासर्प जैसे भयानक प्राणी हैं, वहीं दैत्य, दानव यक्षादि भी हैं। वरुण के उन सैनिकों से श्रीकृष्णचन्द्र का जल के भीतर युद्ध प्रारम्भ हो गया। समुद्र का जल उन्मथित हो उठा। अल्प प्राण समुद्रीय प्राणी भागकर दूर चले गये। गायें कहाँ गयीं यह देख पाना भी सरल नहीं रहा किन्तु वरुण के बहुत अधिक सैनिक मारे गये। उनके शरीर के टुकड़ों से समुद्र का जल अपारदर्शी होने लगा और दूषित हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस प्रकार का कोई पशु अब कहीं पाया नहीं जाता, यद्यपि जल घोटक और जल हस्ती अब भी समुद्र में पर्याप्त मिलते हैं। उस समय भी यह प्राणी दुर्लभ था और केवल वाणासुर के पास था
- ↑ शार्क
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