श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. वरुण-विजय
जलस्त्रावी श्वेत छत्र धारण किये, हाथ में धनुष लिये अतल-सागर नील वर्ण, मकर वाहन वरुणदेव युद्ध में स्वयं आ गये। उन्होंने अपना पाश तो नहीं उठाया क्योंकि वे जानते हैं कि श्रीहरि पाश-छेत्ता हैं और उनका सान्निध्य प्राप्त रहने पर गरुड़ को पाश-छेदन का व्यसन हो जाता है। उन नागरिपुर का प्रत्येक पाश सर्प ही जान पड़ता है और वे उसे टुकड़े किये बिना नहीं मानते। वरुण ने सीधे वारुणास्त्र का प्रयोग किया। समुद्र में प्रचण्डतर धारा उत्पन्न करके श्रीकृष्ण सहित गरुड़ को दूर समुद्र तट पर डाल देना चाहते थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने वैष्णवास्त्र से उत्तर दिया। वारुणास्त्र का जल भस्म हो गया। वरुण स्वयं तथा उनके सैनिक भी उस महास्त्र की ज्वाला से उबलते सागर जल में अत्यन्त सन्तप्त होने लगे। वरुण ने धनुष फेंक दिया और अपने वाहन मकर से कूदकर हाथ जोड़कर समुद्र में खड़े होकर स्तुति करने लगे- 'देव देव! जनार्दन! आप प्रसन्न हों। मेरे अपराध क्षमा करें। केशव, आप निखिल लोकों के स्वामी हैं, इस अनुचर पर अनुग्रह करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने अस्त्र का उपसंहार किया। समुद्र का जल शान्त हुआ और शीतल होने लगा। वरुण के सैनिक-सेवकों को प्राणदान प्राप्त हुआ। श्रीद्वारिकाधीश ने मेघ गम्भीर स्वर में कहा- 'जलाधिष! विवाद की शान्ति के लिए गायें दे दो।' 'स्वामी! मैं विवश हूँ।' वरुण ने अत्यन्त विनम्र होकर प्रार्थना की- 'मेरे पास मेरी एक भी गौ अब इस जाति में नहीं है। ये वाणासुर की गायें है और मैंने उसे इनकी रक्षा करने का वचन दिया है। मैं जीवित रहने तक इनकी रक्षा करूँगा। आप समर्थ हैं, मेरी हत्या करके आप इन्हें ले जा सकते हैं।' 'तुम धर्म पर स्थित हो।' सुप्रसन्न श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर बोले- 'जो धर्म पर दृढ़ हैं उनका पराभव सम्भव नहीं है। गायें तुम्हारे पास रहें।' धर्म के रक्षक, धर्म के स्वामी, धर्म के द्वारा परमप्राप्य पुरुषोत्तम धर्मारूढ़ की रक्षा न करें तो धर्म की रक्षा कैसे हो सकती है। श्रीद्वारिकाधीश वरुण के व्रत से बहुत संतुष्ट थे। उन्होंने वरुण की प्रशंसा की। उन परिपूर्ण काम को गायों का प्रलोभन भला क्यों होने लगा था। महारानी सत्यभामा ने गायों में-से कोई लाने को कहा था किन्तु इनके लिए किसी धर्म पर स्थित लोकपाल का वध तो नहीं किया जा सकता था। गायें सरलता से पायी जा सकती थीं। यदि सचमुच श्रीकृष्णचन्द्र उन्हें लेना चाहते। सबकी-सब वे गायें वाणासुर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री के दहेज में उन्हें दे देता यदि वे उससे संकेत भी करते किन्तु इन लीलामय की लीला का रहस्य कैसे जाना जा सकता है। ये सुर दुर्लभ गायें द्वारिका आयें तो गोदान में इन्हें प्राप्त करने की स्पृहा जागेगी ब्राह्मणों में और जिसे नहीं मिलेगी वह असन्तुष्ट होगा। त्यागी, तपस्वी, ब्राह्मणों में लोभ जगाना उचित नहीं था और गायें अनन्त नहीं थीं। इतनी भी नहीं कि श्रीद्वारिकाधीश अपनी प्रत्येक रानी को एक-एक दे सकें। वरुण ने श्रीकृष्णचन्द्र का पूजन किया। अपने अमूल्य रत्न, मौक्तिक, माल्य प्रभृति भेंट किये। उनसे सत्कृत होकर वे द्वारिका लौटे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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