श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. षट्पुर-नाश
सब समान विपत्ति से बचे थे। सब आश्रयहीन थे। श्रीहरि कभी असुरों के सहायक नहीं रहे और शंकर ने तो त्रिपुर ध्वंस किया ही था। अतः सब दानवों ने सृष्टिकर्ता को प्रसन्न करने के लिए तप प्रारम्भ किया। एक मन, एक प्राण, एक उद्देश्य, एक आराध्य, एक ही प्रकार का तप-सब के सब एक पैर पर खड़े, अनाहार दीर्घकाल तक तपस्या करते रहे। असुरों का आवेश सर्वत्र उग्र होता है। क्रिया का वेग उतना होगा, जितना प्रबल रजोगुण होगा। दानवों ने अत्यन्त कठोर तप त्रिपुर-नाश के पश्चात प्रथम मन्वन्तर के सतयुग में प्रारम्भ किया और वर्तमान मन्वन्तर तक तपोलीन रहे। अन्ततः सृष्टिकर्ता प्रसन्न हुए। वे हंस-वाहन पधारे और उन्होंने दानवों से वरदान माँगने को कहा। 'हम शिव से प्रतिशोध लेना चाहते हैं। उन्हें न भी मार सकें तो भी उनका कैलास नष्ट कर देना चाहते हैं। हमारे समान उन्हें भी स्थान-भ्रष्ट होकर भटकना चाहिए।' दानवों के दीर्घकालीन तप ने उनके रोष को बढ़ाया ही था। सबने एक स्वर से कहा। 'असम्भव प्रयास।' भगवान ब्रह्मा ने झिड़क दिया- 'इस प्रयत्न में तुम सब स्वयं नष्ट हो जाओगे। उन प्रलयंकर से प्रतिशोध नहीं लिया जा सकता। जो सर्वलोक संहारक हैं, उन काल के भी नियन्ता महाकाल का कोई विरोध करके सकुशल नहीं रह सकता।' ब्रह्मा जी तो असन्तुष्ट होकर लौट जाने के लिए हंस पर बैठ गये थे; किन्तु दानवों ने अत्यन्त दीन स्वर में गिड़गिड़ाते हुए कहा- 'हम उन परम कोपन रुद्र से बहुत भयभीत हैं। उनसे हमारी रक्षा कीजिये; उन त्रिनयन से हमें अब कभी भय न हो।' 'तथास्तु।' सृष्टिकर्ता ने यह वरदान दे दिया। 'हम देवताओं से अवध्य रहें। वे हमारे सनातन शत्रु हैं।' दानवों ने दूसरा वरदान माँगा और यह भी उन्हें मिल गया। 'पृथ्वी के भीतर हमारे छः पुर हों। वे सब प्रकार से समृद्ध हों और वहाँ कोई अभाव हमें न हो।' मय के निर्मित पुरों का विनाश वे देख चुके थे। दानवेन्द्र की कला से उनकी आस्था उठ गयी थी। अब तीन के स्थान पर छः पुर उन्होंने सीधे सृष्टिकर्ता से माँगे। 'ऐसा ही होगा; किन्तु' भगवान ब्रह्मा ने इस बार वरदान देने में सावधानी रखी- 'तुम लोग अब ब्राह्मणों का विरोध मत करना। ब्राह्मणों का विरोध करोगे तो मेरा वरदान निष्प्रभाव हो जायगा।' कोई भी अपनी प्रकृति को कहाँ छोड़ पाता है। सब अपने स्वभाव से विवश हैं। मनुष्य अपने लिए अत्यन्त अहितकर व्यसनों का सेवन प्रकृति की विवशतावश करता है। दानव प्रकृति से ही देव-विप्र विरोधी थे। सात्त्विकता से उनकी जन्मजात शत्रुता। वे कब तक सृष्टिकर्ता की चेतावनी स्मरण रख पाते। पारियात्र पर्वत के नीचे दानवों के लिए सृष्टि निर्माता के संकल्प से छः पुर बन गये। वे वहाँ निर्भय, स्वच्छन्द रहने लगे। समस्त ऐश्वर्य, सब समृद्धियाँ उन पुरों में सहज उपलब्ध थीं; किन्तु इस समृद्धि और निर्भयता ने उन्हें उन्मद बना दिया। वे ब्रह्मा जी की चेतावनी शीघ्र भूल गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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