श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. षट्पुर-नाश
प्रसिद्ध था कि महर्षि दुर्वासा को अपनी सेवा से संतुष्ट करके ब्रह्मदत्त की पुत्रियों ने उनसे सदा युवती बने रहने और पतिव्रता रहने का वरदान प्राप्त किया है। महाश्रोत्रिय, महासमृद्ध, महापरिवारशाली ब्रह्मदत्त का सम्बन्ध सबसे महान था। वे वसुदेव जी के सहपाठी थे। गुरुकुल में दोनों ने साथ अध्ययन किया था। दोनों में प्रगाढ़ मैत्री थी। वसुदेव जी ने जब भी यज्ञ किया, ब्रह्मदत्त को ऋत्विक बनाया उन्होंने। ब्रह्मदत्त जी ने आवर्ता नदी के तट पर पारियात्र पर्वत के पद-प्रान्त में विशाल यज्ञभूमि प्रस्तुति करायी और एक वर्ष तक चलने वाले यज्ञ का संकल्प लिया। उनके यज्ञ में वैशम्पायन, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, याज्ञवल्क्य, सुमन्तु, जैमिनी, जाबालि जैसे महर्षि ऋत्विक बने। मित्र का निमन्त्रण पाकर वसुदेव जी भी देवकी तथा कई अन्य पत्नियों के साथ उस यज्ञ में पधारे। ब्रह्मदत्त के निमन्त्रण को पाकर वहाँ बहुत-से राजा आये। मगधराज जरासन्ध, शिशुपाल, दन्तवक्र, भाईयों के साथ दुर्योधन और पांडव भी। रुक्मी, विन्द-अनुविन्द, शल्य, शकुनि आदि भी आये। ब्रह्मदत्त ने अपनी ब्राह्मण पत्नियों से उत्पन्न कन्याओं का विवाह पहिले ही श्रेष्ठ ऋषिकुमारों से कर दिया था। दो सौ क्षत्रिय पत्नियों तथा वैश्य पत्नियों से उत्पन्न कन्याएँ यदुवंशियों को विवाह चुके थे। केवल शुद्रा पत्नियों से उत्पन्न सौ कन्याएँ अभी कुमारी थीं। उन नित्य युवती रहने वाली, पतिव्रता रहने का वरदान प्राप्त कुमारियों को पाने का प्रलोभन राजाओं को भी था और दानवों को भी। दानवों का अग्रणी था निकुम्भ। इसने ब्रह्मा का वरदान तो प्राप्त किया ही था, उग्र तप करके त्रिपुरारि को भी संतुष्ट किया। जब वे आशुतोष वृषभध्वज प्रकट हुए, इसने उनसे वरदान माँगा- 'मुझे कभी मरना न पड़े। कोई मुझे मार न सके।' 'ऐसा नहीं हो सकता।' भगवान शंकर ने कह दिया- 'श्रीहरि के कालचक्र से कोई शरीरधारी सदा बचा नहीं रह सकता।' 'तब मेरे तीन शरीर हो।' दानव ने प्रार्थना की- 'मैं इस एक तपस्वी रूप से माता दिति एवं दनु की सदा सेवा करना चाहता हूँ। उनको महर्षि कश्यप का प्रेम भी नहीं मिला और उनकी सन्तान भी मार दी जाती है। उन तपस्विनियों की सेवा में एक पुत्र तो उनका रहे।' 'दानव! माता की सेवा में लगा रहने वाला तुम्हारा संयमी-तपस्वी रूप अमर रहेगा।' सदाशिव दानव की भावना से प्रसन्न हो उठे- 'तुम्हारे शेष दो रूप भी केवल श्रीहरि के चक्र से नष्ट होंगे।' निकुम्भ अपने भाई वज्रनाभ के साथ एक रूप से वज्रपुर में रहने लगा था और दूसरे रूप से षट्पुर में रहने वाले दानवों का अग्रणी था। प्रद्युम्न ने वज्रनाभ को मार दिया। भानुमती-हरण के समय निकुम्भ का वह शरीर नष्ट हो गया जो वज्रपुर में रहता था। किन्तु दिति की सेवा में रहनेवाला उसका रूप तो अमर था और शान्त, तपस्वी था। षट्पुर में वह यादवों का शत्रु था। ब्रह्मदत्त पर वह इसलिए बहुत रुष्ट था क्योंकि उन्होंने अपनी दो सौ कन्याएँ यदुवंशियों को विवाह दी थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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