भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 93 में भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा का वर्णन हुआ है।[1]

यातुधानी एवं ऋषियों का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यातुधानी बोली- तपस्वियों! मैं जो कोई भी होऊं, तुम्हें मेरे विषय में पूछ-ताछ करने का किसी प्रकार कोई अधिकार नहीं है। तुम इतना ही जान लो कि मैं इस सरोवर का संरक्षण करनें वाली हूँ।[1]

ऋषि बोले- भदेर! इस समय हम लोग भूख से व्याकुल हैं और हमारे पास खाने के लिये दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः यदि तुम अनुमति दो तो हम सब लोग इस सरावर से कुछ मृणाल लें लें।[1]

यातुधानी बोली- ऋषियों! एक शर्त पर तुम इस सरोवर से इच्छानुसार मृणाल ले सकते हो। एक-एक करके आओ और मुझे अपना नाम और तात्पर्य बताकर मृणाल ले लो। इसमें विलम्ब करने की आवश्‍यकता नहीं है।[2]

भीष्म जी कहते हैं- 'राजन! उसकी यह बात सुनकर महर्षि अत्रि यह समझ गये कि ‘यह राक्षसी कृत्या है और हम सब ऋषियों का वध करने की इच्छा से यहाँ आयी हुई है।’ तथापि भूख से व्याकुल होने के कारण उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।

अत्रि बोले- कल्याणी! काम आदि शत्रुओं से त्राण करने वाले को अरात्रि कहते हैं और अत (मृत्यु) से बचाने वाला अत्रि कहलाता है। इस प्रकार मैं ही अरात्रि होने के कारण अत्रि हूँ। जब तक जीव को एकमात्र परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, तब तक की अवस्था रात्रि कहलाती है। उस ज्ञानावस्था से रहित होने के कारण भी मैं अरात्रि एवं अत्रि कहलाता हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अज्ञात होनें के कारण जो रात्रि के समान है, उस परमात्म तत्त्व में मैं सदा जाग्रत रहता हूं, अतः वह मेरे लिये अरात्रि के समान है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी मैं अरात्रि और अत्रि (ज्ञानी) नाम धारण करता हूँ। यही मेरे नाम का तात्पर्य समझो।

यातुधानी ने कहा- तेजस्वी महर्षे! आपने जिस प्रकार अपने नाम का तात्पर्य बताया है, उसका मेरी समझ में आना कठिन है। अच्छा, अब आप जाइये और तालाब में उतरिये।

वसिष्ठ बोले- मेरा नाम वसिष्ठ है, सबसे श्रेष्‍ठ होने के कारण लोग मुझे वरिष्ठ भी कहते हैं। मैं गृहस्थ आश्रम में वास करता हूं; अतः वसिष्ठता (ऐश्‍वर्य-संपत्ति) और वास के कारण तुम मुझे वसिष्ठ समझो। यातुधानी बोली मुने! आपने जो अपने नाम की व्याख्या की है उसके तो अक्षरों का भी उच्चारण करना कठिन है। मैं इस नाम को नहीं याद रख सकती। आप जाइये तालाब में प्रवेश कीजिये।

कश्यप ने कहा- यातुधानी! कश्य नाम है शरीर का, जो उसका पालन करता है उसे कश्‍यप कहते हैं। मैं प्रत्येक कुल (शरीर) में अंर्तयामी रूप से प्रवेश करके उसकी रक्षा करता हूं, इसलिये मैं कश्‍यप हूँ। कु अर्थात पृथ्वी पर वम यादि वर्षा करने वाले सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है, इसलिये मुझे कुवम भी कहते हैं। मेरे देह का रंग काश के फूल की भाँति उज्ज्वल है, अतः मैं काश्‍य नाम से भी प्रसिद्ध हूँ। यही मेरा नाम है। इसे तुम धारण करो।

भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध

यातुधानी बोली- महर्षे! आपके नाम का तात्पर्य समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। आप भी कमलों से भरी हुई बावड़ी में जाइये।

भारद्वाज ने कहा- कल्याणी! जो मेरे पुत्र और शिष्य नहीं हैं उनका भी मैं पालन करता हूँ तथा देवता, ब्राह्मण, अपनी धर्मपत्‍नी तथा द्वाज (वर्णसंकर) मनुष्यों का भी भरण-पोषण करता हूं, इसलिये भारद्वाज नाम से प्रसिद्ध हूँ।

यातुधानी बोली- मुनिवर! आपके नामाक्षर का उच्चारण करने में भी मुझे क्लेश जान पड़ता है, इसलिये मैं इसे धारण नहीं कर सकती। जाइये, आप भी इस सरोवर में उतरिये।[2]

गौतम ने कहा- कृत्ये! मैंने गौ नामक इन्द्रियों का संयम किया है, इसलिये ‘गोदम’ नाम धारण करता हूँ। मैं धूम रहित अग्नि के समान तेजस्वी हूं, सबमें समान दृष्टि रखने के कारण तुम्हारे या और किसी के द्वारा मेरा दमन नहीं हो सकता। मेरे शरीर की कांति (गो) अन्धकार को दूर भगाने वाली (अतम) है, अतः तुम मुझे गौतम समझो।[3]

यातुधानी बोली- महामुने! आपके नाम की व्याख्या भी मैं नहीं समझ सकती। जाइये, पोखर में प्रवेश कीजिये।

विश्वामित्र ने कहा- यातुधानी! तू कान खोलकर सुन ले, विश्‍वदेव मेरे मित्र हैं, गौ और संपूर्ण विश्‍व का मैं मित्र हूँ। इसलिये संसार में विश्‍वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हूँ।

यातुधानी बोली- महर्षे! आपके नाम की व्याख्या के एक अक्षर का भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। इसे याद रखना मेरे लिये असंभव है। अतः जाइये, सरोवर में प्रवेश कीजिये।

जमदग्नि ने कहा- कल्याणी! मैं जगत अर्थात देवताओं में आहवनीय अग्नि से उत्पन्न हुआ हूं, इसलिये तुम मुझे जमदग्नि नाम से विख्यात समझो।

यातुधानी बोली- महामुने! आपने जिस प्रकार अपने नाम का तात्पर्य बतलाया है, उसको समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। अब आप सरोवर में प्रवेश कीजिये।

अरुन्धती ने कहा- यातुधानी! मैं अरु अर्थात पर्वत, पृथ्वी और द्यूलोक को अपनी शक्ति से धारण करती हूँ। अपने स्वामी से कभी दूर नहीं रहती और उनके मन के अनुसार चलती हूँ। इसलिये मेरा नामअरुन्धती है।

यातुधानी बोली- देवी! आपने जो अपने नाम की व्याख्या की है उसके एक अक्षर का भी उच्चारण मेरे लिये कठिन है, अतः इसे भी मैं नहीं याद रख सकती। आप तालाब में प्रवेश कीजिये। गण्डा ने कहा- अग्नि से उत्पन्न होने वाली कृत्ये! गडि़ धातु से गण्ड शब्द की सिद्धि होती है, यह मुख के एक देश-कपोल का वाचक है। मेरा कपोल (गण्ड) ऊंचा है, इसलिये लोग मुझे गण्डा कहते हैं।

यातुधानी बोली- तुम्हारे नाम की व्याख्या का उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। अतः इसको याद रखना असंभव है। जाओ, तुम भी बावड़ी में उतरो।

सप्तर्षियों की रक्षा

पशुसख ने कहा- आग से पैदा हुई कृत्ये! मैं पशुओं को प्रसन्न रखता हूँ और उनका प्रिय सखा हूं; इस गुण के अनुसार मेरा नाम पशुसख है।

यातुधानी बोली- तुमने जो अपने नाम की व्याख्या की है, उसके अक्षरों का उच्चारण करना भी मेरे लिये कष्टप्रद है। अतः मैं इसको याद नहीं रख सकती, अब तुम भी पोखर में जाओ। शुनःसख (संन्यासी) ने कहा- यातुधानी! इन ऋषियों ने जिस प्रकार अपना नाम बताया है, उस तरह मैं नहीं बता सकता। तू मेरा नाम शुनःसख समझ।

यातुधानी बोली- विप्रपवर! आपने संदिग्न वाणी में अपना नाम बताया है। अतः अब फिर स्पष्ट रूप से अपने नाम की व्याख्या कीजिये। शुनःसख ने कहा- मैंने एक बार अपना नाम बता दिया फिर भी यदि तूने उसे ग्रहण नहीं किया तो इस प्रमाद के कारण मेरे इस त्रिदण्ड की मार खाकर अभी भस्‍म हो जा इसमें विलंब न हो। यह कहकर उस संन्यासी ने ब्रह्म दण्ड के समान अपने त्रिदण्ड से उसके मस्तक पर ऐसा हाथ जमाया कि वह यातुधानी पृथ्वी पर गिर पड़ी और तुरन्त भस्‍म हो गयी।[3] इस प्रकार शुनःसख उस महाबलवती राक्षसी का वध करके त्रिदण्ड को पृथ्वी पर रख दिया और स्वयं भी वे वहीं घास से ढकी हुई भूमि पर बैठ गये।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 63-78
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 79-89
  3. 3.0 3.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 90-105
  4. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 106-123

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दान-धर्म-पर्व
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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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