महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 63-78

त्रिनवतितम (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 63-78 का हिन्दी अनुवाद


विश्वामित्र ने कहा- 'हम लोगों का भूख के मारे सनातन शास्त्र विस्मृत हो गया है और शात्रोक्त धर्म भी क्षीण हो चला है। ऐसी दशा इसकी नहीं है तथा यह आलसी, केवल पेट की भूख बुझाने में ही लगा हुआ और मूर्ख है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।'

जमदग्नि बोले- 'हमारी तरह इसके मन में वर्षभर के लिये भोजन और ईंधन जुटाने की चिंता नहीं है, इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।'

कश्यप ने कहा- 'हम लोगों के चार भाई हम से प्रतिदिन ‘भोजन दो, भोजन दो’ कहकर अन्न मांगते हैं, अर्थात हम लोगों को एक भारी कुटुम्ब के भोजन-वस्त्र की चिन्ता करनी पड़ती है। इस संन्यासी को यह सब चिन्ता नहीं है। अतः यह कुत्ते के साथ मोटा है।'

भारद्वाज बोले- 'इस विवेकशून्य ब्राह्मणबंधु को हम लोगों की तरह स्त्री के कलंकित होने का शोक नहीं है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।'

गौतम बोले- 'हम लोगों की तरह इसे तीन-तीन वर्षों तक कुश की बनी हुइ तीन लर वाली मेखला और मृगचर्म धारण करके नहीं रहना पड़ता है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।'

भीष्म जी कहते हैं- राजन! कुत्ते सहित आये हुये संन्यासी ने जब उन महर्षियों को देखा, तब उनके पास आकर संन्यासी की मर्यादा के अनुसार उनका हाथ से स्पर्श किया। तदनन्तर वे एक-दूसरे को अपना कुशल-समाचार बताते हुए बोले- 'हम लोग अपनी भूख मिटाने के लिये इस वन में भ्रमण कर रहे हैं।' ऐसा कहकर वे साथ-ही साथ वहाँ से चल पड़े। उन सबके निश्चय और कार्य एक से थे। वे फल-मूल का संग्रह करके उन्हें साथ लिये उस वन में विचर रहे थे।

एक दिन घूमते-फिरते हुए उन महर्षियों को एक सुन्दर सरोवर दिखायी पड़ा, जिसका जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र था। उसके चारों किनारों पर सघन वृक्षों की पंक्ति शोभा पा रही थी। प्रातःकालीन सूर्य के समान रंग के कमल पुष्प उस सरोवर की शोभा बढ़ा रहे थे तथा वैदूर्यमणि की-सी कांति वाले कमलिनी के पत्ते उसमें चारों ओर छा रहे थे। नाना प्रकार के विहंगम कलरव करते हुए उसकी जलराशि का सेवन करते थे। उसमें प्रवेश करने के लिये एक ही द्वार था। उसकी कोई वस्तु ली नहीं जा सकती थी। उसमें उतरने के लिये बहुत सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। वहाँ काई और कीचड़ का तो नाम भी नहीं था। राजा वृषादर्भि की भेजी हुई भयानक आकार वाली यातुधानी कृत्या उस तालाब की रक्षा कर रही थी।

पशुसख के साथ वे सभी महर्षि मृणाल लेने के लिये उस सुन्दर सरोवर के तट पर गये, जो उस कृत्या के द्वारा सुरक्षित था। सरोवर तट पर खड़ी हुई उस यातुधानी कृत्या को जो बड़ी विकराल दिखायी देती थी, देखकर वे सब महर्षि बोले- 'अरी! तू कौन है और किसलिये यहाँ अकेली खड़ी है? यहाँ तेरे आने का क्या प्रयोजन है? इस सरोवर के तट पर रहकर तू कौन-सा कार्य सिद्ध करना चाहती है?'

यातुधानी बोली- 'तपस्वियो! मैं जो कोई भी होऊं, तुम्हें मेरे विषय में पूछताछ करने का किसी प्रकार कोई अधिकार नहीं है। तुम इतना ही जान लो कि मैं इस सरोवर का संरक्षण करने वाली हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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