भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपसंहार
महाराज परीक्षित ने उसी दिन से सेवक नियुक्त कर दिए पता लगाने को। जो भी व्रजवासियों के संबंधी थे – चारों वर्णों के उन लोगों को विशेष आग्रह करके, विशेष सुविधाएं देकर बुला- बुलाकर बसाया जाने लगा। उन्हें भवन, पशु, क्षेत्रादि प्रदान किए गए। कपि, मृद, गो, अश्व, मयूर, काक, शुक, कपोतादि समीपस्थ स्थानों से ला-लाकर व्रज में, मथुरा में छोड़े गए और उनके आहार, सञ्चार की व्यवस्था की गई। जब थोड़े पशु – पक्षी बस गए, दूसरे स्वत: ही आने लगे। मथुरा और व्रज मंडल के लोग मनुष्य ही नहीं, दूसरे प्राणी भी जो अब हैं, परीक्षित एवं वज्रनाभ द्वारा लाए गए मनुष्यों एवं प्राणियों की इसी परंपरा के हैं। व्रजधारा का वही रूप है। वनस्पतियों की परंपरा भी वहीं है। कुण्ड, कूप, सरोवर, देवालयादि का निर्माण वज्रनाभ कर रहे थे। उनका स्थान निर्देश महर्षि शाण्डिल्य करते थे। श्रीकृष्ण चंद्र की कौन सी लीला कहाँ हुई, यह महर्षि ने सूचित किया। उसके अनुरूप निर्माण वज्रनाभ ने किया। अनेक मंदिर अब भी व्रज मंडल में, मथुरा नगर में वज्रनाभ के द्वारा स्थापित हैं। व्रज के तीर्थों का रूप स्थानादि उसी समय का निश्चित हुआ है। भगवान काल का प्रभाव सर्वत्र पड़ता ही है। माथुर – मंडल तो अनेक बार नृशंस आक्रमणकारियों का आखेट हुआ है, किंतु वज्रनाभ की स्थापना की छाप यहाँ सर्वत्र अब भी है। श्रीद्वारिकाधीश में द्वारिका-चरित का विस्तार है
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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