भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस का भयोन्माद
सत्यक जी सिद्ध पुरुष थे–सन्देह नहीं। वे आगम के प्रसिद्ध विद्वान थे। बलि-प्रधान शाक्त एवं माहेश्वर अनुष्ठान कराने में उन्हें आपत्ति नहीं थी। ज्योतिष एवं शकुनशास्त्र के उत्तम ज्ञाता थे। अपने यजमान पर उनकी प्रीति स्वाभाविक थी। कंस भी उनका सम्मान करता था। दूत ने लौटकर समाचार दिया– ‘धनुष भंग का शब्द होते ही सत्यक जी अपने आश्रम से निकल पड़े। वे मथुरा छोड़कर कहीं चले गये।’ कंस के नेत्रों के सामने पृथ्वी मानो घूमने लगी। उसने संकेत से दूत को चले जाने को कह दिया– ‘सत्यक भी छोड़कर चले गये मुझे? अब अपनी ही बुद्धि और बल पर भरोसा करना है!’ कंस असावधान नहीं था। उस पर यह दोष कभी किसी ने नहीं लगाया। वसुदेव के पुत्रों के आते ही उसने पीछे गुप्तचर लगा दिये थे। नगरजनों के मध्य वे चर भी राम-श्याम के साथ रहे थे। पूरा समाचार कंस को मिलता रहा है। कंस का रंगकार प्रमुख मार दिया गया। कल के महोत्सव के लिये जो वस्त्र वह ला रहा था, उसे लूट लिया उन दोनों बालकों ने। वायक गुणक के यहाँ वस्त्र लेने जो राजसेवक गया, उसने लौटकर सूचना दी– ‘गुणक तो पागलों की भाँति गुमसुम बैठा है। किसी बातका उत्तर ही नहीं देता। अवश्य ही वह युवा जैसा दीखता है और उसकी दुकान के तो द्वार, पीठ सब स्वर्ण के बनवा डाले उसने।’ ‘हूँ!’ कंस क्रोध से जलता-भुनता रहा सुन-सुनकर– ‘दोनों बालक जादूगर हो गये हैं। दोनों चमत्कार दिखाने लगे हैं। उस दासी कुब्जा को सीधी कर दिया। वह रूपवती बनकर मटकती अपने घर लौट गयी। आज उसे अपने महाराज को अंगराग-लेपन का भी स्मरण नहीं रहा।’ ‘भगवान वासुदेव की जय बोलने लगे हैं नागरिक।’ कंस दाँत पीसता है– ‘वसुदेव का छोटा पुत्र अब भगवान बन गया है। अब ये नागरिक-दासी तक मेरी उपेक्षा करने लगे हैं। कल मैं इन सबको एक साथ मार दूंगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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