- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 35 में ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
ब्रह्मा का संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राह्मण जन्म से ही महान भाग्यशाली, समस्त प्राणियों का वन्दनीय, अतिथि और प्रथम भोजन पाने का अधिकारी है। तात! ब्राह्मण सब मनोरथों को सिद्ध करने वाले, सबके सुहृद तथा देवताओं के मुख हैं। वे पूजित होने पर अपनी मंगलयुक्त वाणी से आशीर्वाद देकर मनुष्य के कल्याण का चिन्तन करते हैं। तात! हमारे शत्रुओं के द्वारा पूजित न होने पर उनके प्रति कुपित हुए ब्राह्मण उन सबको अभिशापयुक्त कठोर वाणी द्वारा नष्ट कर डालें। इस विषय में पुराणवेत्ता पुरुष पहले की गायी हुई कुछ गाथाओं का वर्णन करते हैं- प्रजापति ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को पूर्ववत उत्पन्न करके उनको समझाया, 'तुम लोगों के लिये विधिपूर्वक स्वधर्मपालन और ब्राह्मणों की सेवा के सिवा और कोई कर्तव्य नहीं है।' ब्राह्मण की रक्षा की जाये तो वह स्वयं भी अपने रक्षक की रक्षा करता है; अत: ब्राह्मण की सेवा में तुम लोगों का परम कल्याण होगा।' ‘ब्राह्मण की रक्षारूप अपने कर्तव्य का पालन करने से ही तुम लोगों को ब्राम्ही लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये प्रमाणभूत तथा उनको वश में करने वाले बन जाओगे। ‘विद्वान ब्राह्मण को शूद्रोचित कर्म नहीं करना चाहिये। शूद्र के कर्म करने से उसका धर्म नष्ट हो जाता है।' ‘स्वधर्म का पालन करने से लक्ष्मी, बुद्धि, तेज और प्रतापयुक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, तथा स्वाध्याय का अत्यधिक माहात्म्य उपलब्ध होता है। ‘ब्राह्मण आहवनीय अग्नि में स्थित देवतागणों को हवन से तृप्त करके महान सौभाग्यपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होते हैं।' वे ब्राम्ही विद्या से उत्तम पात्र बनकर बालकों से भी पहले भोजन पाने के अधिकारी होते हैं। ‘द्विजगण! यदि तुम लोग किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करने के कारण प्राप्त हुई परम श्रद्धा से सम्पन्न हो इन्द्रिय संयम और स्वाध्याय में लगे रहोगे तो सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लोगे।' ‘मनुष्यलोक में तथा देवलोक में जो कुछ भी भोग्य वस्तुऐं हैं, वे सब ज्ञान, नियम और तपस्या से प्राप्त होने वाली हैं।' ‘आप लोगों के समादर से पवित्र हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि प्राणी इहलोक और परलोक में भी प्रीति एवं सम्पत्ति पाते हैं। जो आपके विरोधी हैं, वे आपसे अरक्षित होने के कारण विनाश को प्राप्त होते हैं। आपके तेज से ही ये सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं; अत: आप तीनों लोकों की रक्षा करें।'
ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
निष्पाप युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्रह्मा जी की गायी हुई गाथा मैंने तुम्हें बतायी है। उन परम बुद्धिमान विधाता ने ब्राह्मणों पर कृपा करने के लिये ही ऐसा कहा है। मैं ब्राह्मणों का बल तपस्वी राजा के समान बहुत बड़ा मानता हूँ। वे दुर्जय, प्रचण्ड, वेगशाली और शीघ्रकारी होते हैं। ब्राह्मणों में कुछ सिंह के समान शक्तिशाली होते हैं और कुछ व्याघ्र के समान। कितनों की शक्ति वाराह और मृग के समान होती है। कितने ही जल-जन्तुओं के समान होते हैं। किन्हीं का स्पर्श सर्प के समान होता है तो किन्हीं का घड़ियालों के समान। कोई शाप देकर मारते हैं तो कोई क्रोधभरी दृष्टि से ही भस्म कर देते हैं।
कुछ ब्राह्मण विषधर सर्प के समान भयंकर होते हैं और कुछ मन्द स्वभाव के भी होते हैं। युधिष्ठिर! इस जगत में ब्राह्मणों के स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकार के हैं। मेकल, द्रविड़, लाट, पौण्ड, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर, बर्बर, किरात और यवन- ये सब पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राह्मणों के साथ ईर्ष्या करने से नीच हो गये। ब्राह्मणों के तिरस्कार से ही असुरों को समुद्र में रहना पड़ा और ब्राह्मणों के कृपा प्रसाद से देवता स्वर्गलोक में निवास करते हैं। जैसे आकाश को छूना, हिमालय को विचलित करना और बाँध बाँधकर गंगा के प्रवाह को रोक देना असम्भ्ाव है, उसी प्रकार इस भूतल पर ब्राह्मणों को जीतना सर्वथा असम्भव है। ब्राह्मणों से विरोध करके भूमण्डल का राज्य नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि महात्मा ब्राह्मणों, देवताओं के भी देवता हैं। युधिष्ठिर! यदि तुम इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य भोगना चाहते हो तो दान और सेवा के द्वारा सदा ब्राह्मणों की पूजा करते रहो। निष्पाप नरेश! दान लेने से ब्राह्मणों का तेज शान्त हो जाता है, इसलिये जो दान नहीं लेना चाहते उन ब्राह्मणों से तुम्हें अपने कुल की रक्षा करनी चाहिये।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
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| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
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| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
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| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
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| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
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| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
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| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
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| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
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| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
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| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
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| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
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| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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