पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. दुर्योधन को मतिभ्रम
कर्ण के मारे जाने का समाचार राजा धृतराष्ट को संजय ने उसी रात्रि में सुनाया था। देवी गान्धारी उस समय पति के पास ही थीं। उन्होंने सुनकर शोकमग्न राजा के सम्मुख ही कहा- 'संजय ! कर्ण ही मेरे पुत्रों की एक मात्र आशा था। उसके न रहने पर दुर्योधन बहुत दुःखी होगा। अपनी ही दुर्मति से उसने पूरे वंश का नाश करवा दिया; किन्तु अब उसे स्वयं पाण्डवों का सामना करना होगा। भीम बहुत क्रोधी हैं। उसने मेरे सब पुत्र मार दिये। वह दुर्योधन को सम्मुख समर में पाकर छोड़ नही सकता। मैं सम्मति भी दूँ कि अब भी पाण्डवों से सन्धि कर ले तो उसे दुर्योधन नहीं सुनेगा।’ संजय ने कहा- 'कृपाचार्य ने यही सम्मति आज ही दी थी; किन्तु आप के ज्येष्ठ पुत्र का कहना है कि मैंने पाडण्वों को इतना सताया है, इतनी अपमानित किया है, इतनी अवज्ञा की है उनकी कि अब वे इस विजय को पाकर मेरी सन्धि की बात सुन नहीं सकते। वे मेरा उवहास करेंगे और मैं भी अब उनके द्वारा उपकृत होकर कैसे जीवन धारण करूँगा। जिस भीम ने मेरे सब भाई मार दिये, उसके व्यंग सुनते हुए जीवित रहने से मर जाना कहीं उत्तम हैं। यह शत्रुता तो इतनी बढ़ गयी है कि उसे मेरी या उनकी मृत्यु ही मिटा सकती है। युद्ध के अतिरिक्त अब दूसरा मार्ग नहीं।’ 'वह अत्यन्त हठी हैं।' गान्धारी ने कहा- 'दूसरे की सम्मति मानना उसने सीखा ही नहीं। संजय ! मेरा मातृत्व मुझे अधीर बना रहा हैं। उससे जाकर कहो कि कल युद्ध में जाने से पूर्व ही एक बार मेरे सामने सब वस्त्र उतारकर आ जाय। मैं उसे नेत्रो की पट्टी खोलकर देख लूँगी। पुत्र के शरीर को वज्र प्राय बना देने के लिए एक क्षण को नेत्र बाँधे रहने का आ जीवन चलने के लिए लिया गया नियम भंग करूँगी। जानती हूँ कि यह मोह हैं; किन्तु विपत्ति में पड़े पुत्र को सुरक्षित करने के लिए यह करूँगी।' राजा धृतराष्ट तथा संजय दोनों ने इसका अनुमोदन कर दिया। रात्रि में ही संजय ने जाकर दुर्योधन को उसकी माता का सन्देश सुनाया। मद्रराज शल्य को सेनापति दुर्योधन बहुत सबेरे- अन्धकार रहते ही रथ में बैठा और हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। श्रीकृष्ण लीलामय हैं। वे कब क्या करेंगे, दूसरा कोई कैसे जान सकता है। कर्ण-वध के पश्चात पाण्डव शिविर में सब निश्चित सोये थे; किन्तु श्रीकृष्ण रात्रि में ही उठे और दारुक को उन्होंने अपना रथ सज्जित करने को कहा। अपने रथ पर बैठकर वे युद्धभूमि की परिक्रमा करने निकल पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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