पार्थ सारथि-सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. दुर्योधन को मतिभ्रम
दुर्योधन का मार्ग में श्रीकृष्ण का गरुड़ध्वज रथ मिला। उसने केशव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। वे हृषीकेष हँसकर बोले- 'मैं तो इस समय यह देखने निकला था कि इस भूमि का किधर का भाग आज युद्ध के उपयुक्त है। अधिकांश भूमि तो मृतकों, टूटे रथों तथा शस्त्रो से पटी पड़ी है; किन्तु लगता है कि तुमने अब पाण्डवों से यूद्ध का विचार त्याग दिया है। तुम्हें ठीक समझ देर से आती है। अपने पिता के पास जा रहे हो कि वे मध्य में पड़कर युधिष्ठिर से तुम्हारी सन्धि करा दें। बहुत उत्तम विचार है; किन्तु कह नहीं सकता कि भीमसेन इसे मान लेगे या नहीं।’ 'मैं प्राण रहते उस पेटू से सन्धि नहीं करूँगा।' दुर्योधन ने चिढ़कर कहा- 'मुझे माता ने बुलाया है।' 'एक ही बात हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा- 'राजा धृतराष्ट मध्यस्थ बनें या देवी गान्धारी; किन्तु तुम पहले ही उन दोनो में-से किसी की सुन लेते तो बेचारा दुःशासन भीम के हाथों उस प्रकार मारा न जाता।' 'केशव, आपका अनुमान सत्य नहीं हैं।' अब उत्तेजना में दुर्योधन कह गया- 'मेरी माता वीर माता हैं। वे मुझे विरत होने का आदेश इस विशमावस्था में नहीं देंगी। वे महासती तो एक बार मेरे अनावरित शरीर पर दृष्टिपात करके सम्पूर्ण देह को वज्र बना देना चाहती हैं जिससे उनका यह पुत्र अकेले ही सब पाण्डवों का मान-मर्दन करने में समर्थ हो जाय।' 'बहुत उत्तम विचार है।' श्रीकृष्ण ने गम्भीर होकर कहा- 'वे महासती विपत्ति में पड़े पुत्र को इससे उपयोगी वरदान और क्या दे सकती हैं। वे सचमुच इसमें समर्थ है; किन्तु दुर्योधन ! जिस माता ने पतिगृह आने पर सदा के लिए अपने अन्धे पति के पदानुसरण में अपने नेत्र बाँध लिये, जिसने अपने शिशिुओं का भी शरीर कभी नहीं देखा, उस माता की मर्यादा उसके सतीत्व का भी तुम्हें कुछ ध्यान है ? उन्होंने तो संसार को कभी देखा ही नहीं; किन्तु तुमने तो देखा है। युवा पुत्र माता के सम्मुख दिगम्बर खड़ा हो जाय, यह उचित लगता है तुम्हें ? फिर ऐसी माता के सम्मुख जिसने तुम्हें शैशव में भी नहीं देखा है। तुम समझदार हो, अतः माता के गौरव का भी ध्यान रखना। श्रीकृष्ण इतना कहकर दारुक को रथ आगे बढ़ाने के लिए कहने लगे। दुर्योधन ने ही उन्हें रोका- 'केशव ! आप मेरे भी सम्बन्धी हैं। मुझे क्या करना चाहिए, यह बतलाते जायँ।' 'कोई विशेष बात नहीं।' श्रीकृष्ण ने चलते-चलते कह दिया- 'माता के सम्मुख कच्छधारण करके जाना। इससे मर्यादा बनी रहेगी।' दुर्योधन माता के सम्मुख कच्छ पहने, शेष सब बस्त्र उतार कर पहुँचा। माता को प्रणाम करके बोला- 'अम्ब ! आपके आदेशानुसार मैं वस्त्रहीन होकर उपस्थित हुआ हूँ।' देवी गान्धारी ने पट्टी सरकायी और नेत्र खोले। एक दृष्टि दुर्योधन के शरीर पर डालकर नेत्र बन्द करके पट्टी ठीक करते हुए पूछा- 'पुत्र ! तुम्हें मार्ग में कोई मिल गया था ?' 'श्रीकृष्णचन्द्र मिले थे माता !' दुर्योधन ने कहा- 'उन्होंने ही सम्मति दी कि मैं सर्वथा नग्न आपके सामने जाकर आपका असम्मान न करूँ। कच्छ मैंने इसीलिए शरीर पर रखा है।' 'वे सर्वेश्वर ! उनकी इच्छा पूर्ण हो !' गांधारी ने कहा- ‘तेरा कच्छ से ढका शरीर का भाग दुर्बल रह गया; किन्तु अब जा।' स्वयं गान्धारी को यह क्षण भर का नियम-भंग अधीर कर रहा था। अपना मोह वश किया गया कर्म उन्हें खिन्न किये था। वे चुप रह गयीं। दुर्योधन तुरन्त लौट आया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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