पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. शल्य भी समाप्त
शल्य अनेक बातों में विश्ष्ठि थे। उनके रथ पर लक्ष्य वेध करने वाला यन्त्र था जो अनवरत असंख्य बाण एवं गोले बरसाता था।[1] उस यन्त्र की मार से प्रबल शत्रु समूह भी खड़ा होता था। शल्य ने युधिष्ठिर तथा भीमसेन का भी कवच काट दिया। युधिष्ठिर का धनुष भी कट गया। कृपाचार्य ने उनके सारथि को भी मार डाला। उनके रथ के अश्व मारे गये। इस संकट में भीमसेन ने सहायता की। उन्होंने शल्य का धनुष काट दिया और सारथि को मारकर रथ–अश्व सब को नष्ट कर दिया। यह सब युद्ध में होता ही है। कभी एक पक्ष बीस पड़ता हैं, कभी दूसरा। अन्त में युधिष्ठिर ने प्रलयाग्नि के समान अमोघ शक्ति उठायी। पाण्डवों ने सदा उसकी पूजा की थी। उसके प्रहार से मद्रराज शल्य का वक्ष फट गया। उनका सारा अगं छिन्न-भिन्न हो गया। कौरवौं का अन्तिम सेनापति प्रभात के प्रथम प्रहर के अन्त में ही मारा गया। युद्ध फिर भी चलता रहा। मद्रराज शल्य का छोटा भाई और उनके अनुचर भी खेत रहे। धृष्टघुम्न के हाथों शाल्व मारा गया। शकुनि ने घुमकर पाण्डवों पर पीछे से आक्रमण किया; सहदेव ने उसे तथा उसके पुत्र उलूक को भी सेना के साथ मार दिया। यह युद्ध जब दो प्रहर के पश्चात समाप्त हुआ, भीमसेन ने दुर्योधन के अतिरिक्त धृतराष्ट के सब पुत्र मार दिये थे। कौरवों के पक्ष में एकत्र पूरी ग्यारह अक्षौहिणी सेना समाप्त हो गयी थी। दुर्योधन के दल में उसके अतिरिक्त कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा ये तीन ही बचे थे। वे दुर्योधन से बहुत दूर पड़ गये थे। उस समय भी पाण्डवों के पास दो सहस्र रथी, पाँच सहस्र अश्वसवार तथा दशसहस्र पदाति सेना शेष थी। सञ्ज्य को सात्यकि ने बन्दी बना लिया था; किन्तु भगवान व्यास के कहने से वह छोड़ दिया गया। धृतराष्ट का दासी पुत्र युयुज्सु प्रारम्भ में ही पाण्डवों के पक्ष में आ गया था। वहीं बचा था और युधिष्ठिर ने उसे कौरव-स्त्रियों को नगर में ले जाने की आज्ञा दे दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसकी तुलना आज मशीन गन से की जा सकती है।
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