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उपर्युक्त सारी टीकाओं में श्रीशंकराचार्य का भाष्य सबसे प्राचीन है। किन्तु श्रीशंकाराचार्य के समय में भी गीता पर कुछ ऐसी टीकाएं विद्यमान थी जो ‘समसमुच्चयवाद’ को ही मानती थी, इसी से श्रीशंकाराचार्य ने उपर्युक्त टीकाओं को बडे़ जोर से खण्डन किया है। (देखिये गीता 2।11 पर शांकरभाष्य) | उपर्युक्त सारी टीकाओं में श्रीशंकराचार्य का भाष्य सबसे प्राचीन है। किन्तु श्रीशंकाराचार्य के समय में भी गीता पर कुछ ऐसी टीकाएं विद्यमान थी जो ‘समसमुच्चयवाद’ को ही मानती थी, इसी से श्रीशंकाराचार्य ने उपर्युक्त टीकाओं को बडे़ जोर से खण्डन किया है। (देखिये गीता 2।11 पर शांकरभाष्य) | ||
इससे यह स्पष्ट है कि समसमुच्चय वाद के सिद्धान्त को मानने वाली कुछ टीकाएं श्रीशंकाराचार्य के समय से पूर्व केवल विद्यमान ही नहीं थीं, किन्तु उस समय उनका प्रभाव भी कम नहीं था, यद्यपि उनमें से एक भी टीका इस समय उपलब्ध नहीं है। इसलिये इस समय यदि कोई उक्त सिद्धान्त के अनुसार गीता की व्याख्या करे तो उसे नयी कल्पना न समझकर केवल पुराने सिद्धान्त का पुनरुद्धार ही मानना चाहिये। मैं आज अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत निबन्ध में इसी बात की चेष्टा करूँगा। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयत्न लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक- जैसे असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान ने अपने ‘गीता-रहस्य’ में किया है और उसमें उन्हें यथेष्ट सफलता भी प्राप्त हुई। लोकमान्य तिलक की जैसी कुशाग्र बुद्धि और अगाध विद्वत्ता थी उनका वैसा ही गहन बोध भी था। इन्हीं सब गुणों के कारण वे इस विषय का पूर्ण एवं सर्वांगीण विवेचन करने में समर्थ हुए।<br /> | इससे यह स्पष्ट है कि समसमुच्चय वाद के सिद्धान्त को मानने वाली कुछ टीकाएं श्रीशंकाराचार्य के समय से पूर्व केवल विद्यमान ही नहीं थीं, किन्तु उस समय उनका प्रभाव भी कम नहीं था, यद्यपि उनमें से एक भी टीका इस समय उपलब्ध नहीं है। इसलिये इस समय यदि कोई उक्त सिद्धान्त के अनुसार गीता की व्याख्या करे तो उसे नयी कल्पना न समझकर केवल पुराने सिद्धान्त का पुनरुद्धार ही मानना चाहिये। मैं आज अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत निबन्ध में इसी बात की चेष्टा करूँगा। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयत्न लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक- जैसे असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान ने अपने ‘गीता-रहस्य’ में किया है और उसमें उन्हें यथेष्ट सफलता भी प्राप्त हुई। लोकमान्य तिलक की जैसी कुशाग्र बुद्धि और अगाध विद्वत्ता थी उनका वैसा ही गहन बोध भी था। इन्हीं सब गुणों के कारण वे इस विषय का पूर्ण एवं सर्वांगीण विवेचन करने में समर्थ हुए।<br /> | ||
− | गीता के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये सन्नद्ध होने को कहते हैं<ref>क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। (2।3)</ref>। गीता के अन्त में भी हम देखते हैं कि भगवान की कृपा से अर्जुन का संशय मिट जाने और मोह दूर हो जाने पर वह अपने आपको सम्हाल कर युद्ध के लिये तैयार हो जाता है<ref>नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोअस्मि गतसन्देह: करिष्य वचनं तव।। (18। 73)</ref> महाभारत में (जिसके अन्तर्गत भगवद्गीता भी है) यह वर्णन मिलता है कि इसके बाद अर्जुन ने वास्तव में युद्ध किया भी था। इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि भगवान ने अपने गीता के उपदेश में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा की है<ref>तस्माद्युध्यस्व भारत। (२।१८), युध्यस्व विगतज्वर:। (३।३०), अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यिसि। तत: | + | गीता के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये सन्नद्ध होने को कहते हैं<ref>क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। (2।3)</ref>। गीता के अन्त में भी हम देखते हैं कि भगवान की कृपा से अर्जुन का संशय मिट जाने और मोह दूर हो जाने पर वह अपने आपको सम्हाल कर युद्ध के लिये तैयार हो जाता है<ref>नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोअस्मि गतसन्देह: करिष्य वचनं तव।। (18। 73)</ref> महाभारत में (जिसके अन्तर्गत भगवद्गीता भी है) यह वर्णन मिलता है कि इसके बाद अर्जुन ने वास्तव में युद्ध किया भी था। इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि भगवान ने अपने गीता के उपदेश में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा की है<ref>तस्माद्युध्यस्व भारत। (२।१८), युध्यस्व विगतज्वर:। (३।३०), अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यिसि। तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि। (2।33), कुरु कर्मैव तस्मात्वम्। (4।15), युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्। (11।34) इत्यादि।</ref>। |
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01:19, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
कृष्णांक
श्रीकृष्णोपदिष्ट संन्यास का स्वरूप
गीता की प्राय: सभी उपलब्ध टीकाओं ने ‘क्रमसमुच्चय’ के सिद्धान्त को ही माना है, यद्यपि कुछ-कुछ प्रधान बातों में सभी का परस्पर भेद है। हां, श्रीमध्वाचार्य आदि भक्तिमार्ग के कुछ टीकाकारों का यह सिद्धान्त है कर्म के द्वारा शुद्ध होकर जब मनुष्य का चित्त सगुण परमात्मा की अनन्य भक्तिका पात्र बन जाता है तब उसके लिये कर्म छोड़ना अथवा न छोड़ना बराबर ही है। इन टीकाकारों की भी मैं क्रम समुच्चय वादियों में गणना इसलिये करता हूँ कि ये लोग भी अन्ततोगत्वा कर्म को निष्प्रयोजन एवं मुक्ति के लिये अनावश्यक मानते हैं। भक्ति-मार्ग के उन आचार्यों की टीकाओं को भी मैं इसी श्रेणी में रखता हूँ जो शास्त्रोक्त पूजा-अर्चना को तथा उन कर्मों को ही जो केवल शरीर-यात्रा के लिये आवश्यक हैं ‘कर्म’ संज्ञा देते हैं, क्योंकि ये कर्म गीता के उस व्यापक कर्म के व्यपदेशमात्र हैं, जिससे सारे सांसारिक कर्तव्यों का समावेश है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।। (2।3)
- ↑ नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोअस्मि गतसन्देह: करिष्य वचनं तव।। (18। 73)
- ↑ तस्माद्युध्यस्व भारत। (२।१८), युध्यस्व विगतज्वर:। (३।३०), अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यिसि। तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि। (2।33), कुरु कर्मैव तस्मात्वम्। (4।15), युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्। (11।34) इत्यादि।