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क्रियाशीलता भी आपकी जगद्विदित है। आज द्वारका में हैं तो कल देहली में, परसों युद्ध में चढ़ाई हो रही है तो अगले दिन तीर्थयात्रा। हजारों रानियों के साथ पूर्ण गार्हस्थ्य धर्म का निर्वाह, यादव राज्य का सब प्रबन्ध कर भूमण्डल में उसे आदर्श प्रतिष्ठित राज्य बनाना, पाण्डवों के प्रत्येक कार्य में यहायक और सलाहकार के रूप में उपस्थित रहना, भूभार-हरण का अपना कर्तव्य पालन भी करते जाना, महाशत्रुओं से द्वारका की रक्षा भी और शत्रुओं पर आक्रमण कर उसका विध्वंस भी, अत्यल्प समय में द्वारका के विदर्भ में देश पहुँच रुक्मिणी का मनोरथ पूर्ण कर देना आदि क्रियाशीलता के अमानुष उदाहरण हैं। | क्रियाशीलता भी आपकी जगद्विदित है। आज द्वारका में हैं तो कल देहली में, परसों युद्ध में चढ़ाई हो रही है तो अगले दिन तीर्थयात्रा। हजारों रानियों के साथ पूर्ण गार्हस्थ्य धर्म का निर्वाह, यादव राज्य का सब प्रबन्ध कर भूमण्डल में उसे आदर्श प्रतिष्ठित राज्य बनाना, पाण्डवों के प्रत्येक कार्य में यहायक और सलाहकार के रूप में उपस्थित रहना, भूभार-हरण का अपना कर्तव्य पालन भी करते जाना, महाशत्रुओं से द्वारका की रक्षा भी और शत्रुओं पर आक्रमण कर उसका विध्वंस भी, अत्यल्प समय में द्वारका के विदर्भ में देश पहुँच रुक्मिणी का मनोरथ पूर्ण कर देना आदि क्रियाशीलता के अमानुष उदाहरण हैं। | ||
− | यों अव्ययपुरुष की दूसरी कला का विकास पूर्ण रूप में सिद्ध होता है। तीसरी कला ‘मन’ के विकास के लक्षण हैं- मनस्विता- उत्साहशीलता, मनमोहकता (मनोहरता) आदि। शिशुपाल जैसे वीर राजा के मित्रों और सेनापति सहित उपस्थित होने का समाचार सुनकर भी अकेले कुण्डिनपुर चले जाना, भारत के सम्राट् परम शत्रु जरासन्ध से लड़ने को केवल भीम और अर्जुन को साथ ले बिना सेना जा पहुँचना, भरी सभा में कूदकर कंस जैसे राजा के केश पकड़ उसे गिरा देना, मणि चोरी का कलंक लगने पर सबके मना करते रहने पर भी अकेले अपार गुफा में चले जाना, ऐसे मनस्विता- हिम्मत के उदाहरण आपके चरित्रों में सैंकड़ों हैं। मनोहरता जो आपकी प्रसिद्ध है, आपका नाम ही ‘चितचोर’ है। शत्रु भी लड़ने को सामने आकर एक बार आकृष्ट होकर चौकड़ी भूल जाते थे। विदेशीय क्रूर वीर कालयवन को भी अनुपात हुआ था कि ‘ऐसे सुन्दर नौजवान से लड़ना पड़ेगा।’ चैथी कला ‘विज्ञान’ के | + | यों अव्ययपुरुष की दूसरी कला का विकास पूर्ण रूप में सिद्ध होता है। तीसरी कला ‘मन’ के विकास के लक्षण हैं- मनस्विता- उत्साहशीलता, मनमोहकता (मनोहरता) आदि। शिशुपाल जैसे वीर राजा के मित्रों और सेनापति सहित उपस्थित होने का समाचार सुनकर भी अकेले कुण्डिनपुर चले जाना, भारत के सम्राट् परम शत्रु जरासन्ध से लड़ने को केवल भीम और अर्जुन को साथ ले बिना सेना जा पहुँचना, भरी सभा में कूदकर कंस जैसे राजा के केश पकड़ उसे गिरा देना, मणि चोरी का कलंक लगने पर सबके मना करते रहने पर भी अकेले अपार गुफा में चले जाना, ऐसे मनस्विता- हिम्मत के उदाहरण आपके चरित्रों में सैंकड़ों हैं। मनोहरता जो आपकी प्रसिद्ध है, आपका नाम ही ‘चितचोर’ है। शत्रु भी लड़ने को सामने आकर एक बार आकृष्ट होकर चौकड़ी भूल जाते थे। विदेशीय क्रूर वीर कालयवन को भी अनुपात हुआ था कि ‘ऐसे सुन्दर नौजवान से लड़ना पड़ेगा।’ चैथी कला ‘विज्ञान’ के सम्बन्ध में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। |
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01:03, 27 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
दूसरी प्राणकला के विकास के लक्षण हैं- बल, शौर्य, क्रियाशीलता आदि। जिनने ‘शिशु’ अवस्था में अपनी लात से बड़े शकटों को उलट दिश, कुमारावसु में पुराने अर्जुन वृक्षों को एक झटके में उखाड़ फेंका, किशोर अवस्था में कंस के बड़े-बडे़ मल्लों को अखाड़े में पछाड़ दिया, मत्त हाथी को मार गिराया। यौवन में नग्नजित् राजा के यहाँ सात मत्त वृषभों को एक साथ नाथ दिया, क्षत्रियत्व की पूर्णता के उस समय में महा-महावीर क्षत्रियों के भारत में विराजमान रहते- जिनके सामने लड़कर कोई जीत न सका, सब दुष्ट राजाओं पर आक्रमण कर सबका दमन जिन्होंने किया, सारे भूमण्डल का भार उतारा, अकेले इन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर ‘पारिजातहरण’ में इन्द्र तक का मान भंग किया- उनके बल और शौर्य के अमानुष विकास में सन्देह को स्थान ही कहाँ है ? क्रियाशीलता भी आपकी जगद्विदित है। आज द्वारका में हैं तो कल देहली में, परसों युद्ध में चढ़ाई हो रही है तो अगले दिन तीर्थयात्रा। हजारों रानियों के साथ पूर्ण गार्हस्थ्य धर्म का निर्वाह, यादव राज्य का सब प्रबन्ध कर भूमण्डल में उसे आदर्श प्रतिष्ठित राज्य बनाना, पाण्डवों के प्रत्येक कार्य में यहायक और सलाहकार के रूप में उपस्थित रहना, भूभार-हरण का अपना कर्तव्य पालन भी करते जाना, महाशत्रुओं से द्वारका की रक्षा भी और शत्रुओं पर आक्रमण कर उसका विध्वंस भी, अत्यल्प समय में द्वारका के विदर्भ में देश पहुँच रुक्मिणी का मनोरथ पूर्ण कर देना आदि क्रियाशीलता के अमानुष उदाहरण हैं। यों अव्ययपुरुष की दूसरी कला का विकास पूर्ण रूप में सिद्ध होता है। तीसरी कला ‘मन’ के विकास के लक्षण हैं- मनस्विता- उत्साहशीलता, मनमोहकता (मनोहरता) आदि। शिशुपाल जैसे वीर राजा के मित्रों और सेनापति सहित उपस्थित होने का समाचार सुनकर भी अकेले कुण्डिनपुर चले जाना, भारत के सम्राट् परम शत्रु जरासन्ध से लड़ने को केवल भीम और अर्जुन को साथ ले बिना सेना जा पहुँचना, भरी सभा में कूदकर कंस जैसे राजा के केश पकड़ उसे गिरा देना, मणि चोरी का कलंक लगने पर सबके मना करते रहने पर भी अकेले अपार गुफा में चले जाना, ऐसे मनस्विता- हिम्मत के उदाहरण आपके चरित्रों में सैंकड़ों हैं। मनोहरता जो आपकी प्रसिद्ध है, आपका नाम ही ‘चितचोर’ है। शत्रु भी लड़ने को सामने आकर एक बार आकृष्ट होकर चौकड़ी भूल जाते थे। विदेशीय क्रूर वीर कालयवन को भी अनुपात हुआ था कि ‘ऐसे सुन्दर नौजवान से लड़ना पड़ेगा।’ चैथी कला ‘विज्ञान’ के सम्बन्ध में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। |