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<poem style="text-align:center">''''पुरुषाख्या गुणात्मानो लीलात्मानश्च ते त्रिधा''''</poem> | <poem style="text-align:center">''''पुरुषाख्या गुणात्मानो लीलात्मानश्च ते त्रिधा''''</poem> | ||
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01:17, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण स्वयं भगवान थे
उपर्युक्त वाक्यांश श्री कृष्णवतार का विशेष महत्त्व व्यक्त किया गया है किन्तु अन्य आर्ष ग्रन्थों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत के भी पूर्वा पर के वर्णनों द्वारा जटिलता हो गया है इसका क्या रहस्य है यह तो तदीय महज्जन ही अनुभव कर सकते है इस विषय में मुझ जैसे क्षुद्र व्यक्ति का लेखनी उठाना अवश्य ही अनधिकार चेष्ठा है किन्तु फिर भी महात्माओं ने इस विषय पर जो विवेचन किया है उसी के आधार पर संक्षिप्तया कुछ लिखने का साहस किया जाता है। यद्यपि-'सर्वे नित्या: शाश्वताश्च देहास्तस्य परात्मन: । महावाराह
इत्यादि वाक्यों से सभी अवतारों को नित्य शाश्रत हानोपादानशून्य और प्रकृति पर वर्णन किया गया है तथापि अवतारों में शक्ति की न्यूनाधिक अभिव्यक्ति ही अंश और अंशीभाव का कारण ही समस्त अवतारों का सामान्य ता वर्णन है किन्तु सभी अवतारों में अखिल शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होती। यही कहा है- अत्रोच्यते परेशत्वात्पूर्णा यद्यपि तेअखिला: । लघु. भागवतामृत 45।46
इस विषय को स्पष्ट करने के लिये प्रथम भगवान के अवतार तीन प्रकार के होते हैं 1 पुरुषवतार 2 गुणावतार 3 लीलावतार 'पुरुषाख्या गुणात्मानो लीलात्मानश्च ते त्रिधा' ल. भा. 3
पुरुषावतार का वर्णन मद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में अवतारों के संक्षिप्त वर्णन के प्रारम्भ में इस प्रकार किया गया है। जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभि: । (1।3।1)
अर्थात भगवान ने आदी में लोकसृष्टि की इच्छा से महत्त्वादि सम्भूत षोडशकलात्मक पुरुषावतार धारण किया भगवान का चतुव्र्यूह है श्री वासुदेव सकर्षण प्रधुम्न श्री वासुदेव जी के लिये है और श्री आदिदेव नारायण भी यही है भूतैर्यदा पंचभिरात्मसृष्टै: श्रीमद्भा. 11।4।3
और पुरुषावतार के तीन भेद हैं, जिनका वर्णन लघुभागवता मृत में इस प्रकार किया गया है- विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदु: । सात्वततंत्र
इनमें आघ पुरुषावतार वही हैं जिनका वर्णन पूर्वोक्त ‘जगृहे पौरूषं रूपम्’ इत्यादि से मद्भागवत में किया गया है कारणार्णवशायी तथा महाविष्णु नामान्तर हैं और इन्हीं का ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः’ आदि पुरुष सूक्त में वर्णन है, इनका श्रीमद्भागवतादि में इस प्रकार वर्णन है-
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