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अस्मिन्नास्वाद्यमाने तु सच्चिदानन्दरुपिणी ।
प्रचकाशे हरेर्लीला सर्वत: कृष्ण एव च ।
आत्मांच तदन्तस्थं सर्वेअपि ददृशुस्तदा ।।
जब राजा वज्र नाभ गोवर्धन-गिरि पर उद्धवजी के मुख से भागवत का श्रवण करते थे, तब वहाँ उनकी माताएँ भी उपस्थित थीं, तब-
ताश्च तन्मातर: कृष्णे रासरात्रिप्रकाशिनी ।
चन्द्रे कला प्रभारूपमात्मानं वीक्ष्य विस्मिता: ।।
जिसने रास-रजनी का विकास किया था, उसी श्रीकृष्ण चन्द्र की कला के प्रभाव से माताएँ अपने-अपने आत्मा का दर्शन कर विस्मित हो उठीं। रासलीला में जो आत्म दर्शन का व्यापार है, रासलीला में जो सब गोपिकाओं ने स्वतन्त्र-भाव से, एक ही श्रीकृष्ण को अपने संग सम्मिलित देखा था। अपने को उनमें देखने में, उनके आदर का अनुभव करने में कितना सुख है, इस बात को अन्तरअंग साधक के अतिरिक्त दूसरा किस प्रकार समझ सकता है ? भक्ति की यदि स्वस्व रूपानुसन्धान की दृष्टि से व्याख्या की जाय तो वह यथार्थ प्रेमिक पुरुष के अतिरिक्त दूसरे के समझ में कैसे आ सकेगी?
3. रासलीला का रहस्य भगवान व्यासदेव के मुख से सुनकर अब हम रासलीला के सम्बन्ध में कुछ आलोचना करते हैं।क्या कभी तुमने दे डालने से (अर्पण) होने वाले सुख का अनुभव किया है ? सर्वस्व दे डालना, सब कुछ त्याग कर देना ? वह कौन है जिसे सर्वस्व दे डालने में सुख होता है ? अपना जो कुछ भी है- कुल, शील, मान, अभिमान, धन-रत्न आदि सब दे डालना ? जीवन, यौवन, शरीर, मन सब ? क्या कभी इस सुख का अनुभव किया है ? यदि तुमने इसका अनुभव कभी नहीं किया है, यदि अपना जीवन, यौवन सब कुछ दे डालने में कितना सुख है, इसकी कम-से-कम अपने मन में कल्पना भी नहीं कर सकते हो तो तुम रासलीला कौन हीं समझ सकोगे। व्रजांगनाओं ने सब कुछ दे डालने के लिये साक्षात माया-मनुष्य को प्राप्त किया था। पूर्व जन्म में श्रीरामावतार में उन्होंने उग्र तपस्या की थी, उन्होंने दण्डकारण्य में ऋषि-देह से तपस्या करते-करते शरीर को अस्थि चर्मावशिष्ट कर दिया था। श्रीभगवान रामचन्द्र के ‘शिरसि पदनखात् सर्व सौन्दर्य सारंसर्वागेंसु मनोहरम्’ विग्रह को देखकर आलिंगन करने की अभिलाषा उनके हृदय में जाग उठी थी। शुष्क देह से आलिंगन करने पर सम्भवतः दिव्य रस का आविर्भाव न होगा, इसी विचार से भगवान श्रीरघुनाथजी ने उन्हें अति सुन्दरी गोपियों का शरीर प्रदान कर श्रीकृष्ण रूप में आलिंगन किया।
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