श्रीकृष्णांक
रासलीला
जो हो, शरद् की शोभनीया यामिनी का आगमन हुआ, बड़ी हीसुखमयी रजनी थी ! नीचे मल्लिका स्फुटित हो कुंज-कानन को धवलित और सुरभित कर रही थी तथा ऊपर आकाश में शशधर शोभा पा रहे थे। शरत्कालिन सुधाकर निर्मल आकाश में अभी उठ ही रहे थे। नायक जिस प्रकार बहुत दिनों के पश्चात् घर आकर कुमक्कुम-राग से अपनी प्रियतमा का कपोल-रंजन करता है, निशा नाथ उसी प्रकार अपने सुखमय करों के द्वारा अरूण राग से प्राची वधू का मुख-रंजन कर एक अपूर्व सोहाग से नीलआकाश में उपस्थित हो गये। इधर प्रेममयी नायिका ने भी चन्द्र के अखण्ड मण्डल मुख मण्डल को अरूण वर्ण धारण कर उदित हो गये। शरद की रजनी से आज श्रीवृन्दावन की वनभूमि मधुमयी हो रही है। शरत चन्द पवन मन्द, विपिले भरल कुसुम गन्ध, स्मरण करते ही श्रीभगवान की वासना पूर्ति के लिये योगमाया घर-घर संवाद दे आती है। प्रेम-बाँसुरी का मधुर आहृान वायु-तरंग में भरकर जहाँ-तहाँ छूट चला है। प्रेमी कवि के क्या ही सुन्दर वाक्य हैं- बंशी सुनधुन गोप कुमारी । श्री वृन्दावन में रासलीला तो सदा से होती है। अनेक बार होती है। अनेक समय होती है। परन्तु कोई भाग्यवान ही उसे देख पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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