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− | एवं गुणविशिष्ट ईश्वर की प्रपत्ति (शरणागति)- के स्थूल-रूप से दो साधन बतलाये गये हैं। पहला प्राकृत-सम्बन्ध-निवृत्ति भावनामय है, अर्थात् इस साधन में प्रकृति के सम्बन्ध की निवृत्ति की भावना की जाती है। साधक यह भावना करता है कि उसका साध्य (निर्गुण परमात्मा) प्रकृति के सम्बन्ध से सर्वथा रहित है। दूसरा अप्राकृतगुणविभूति भावनामय है, इस साधन में साधक अप्राकृत अर्थात असाधारण गुणें से विभूषित सगुण | + | एवं गुणविशिष्ट ईश्वर की प्रपत्ति (शरणागति)- के स्थूल-रूप से दो साधन बतलाये गये हैं। पहला प्राकृत-सम्बन्ध-निवृत्ति भावनामय है, अर्थात् इस साधन में प्रकृति के सम्बन्ध की निवृत्ति की भावना की जाती है। साधक यह भावना करता है कि उसका साध्य (निर्गुण परमात्मा) प्रकृति के सम्बन्ध से सर्वथा रहित है। दूसरा अप्राकृतगुणविभूति भावनामय है, इस साधन में साधक अप्राकृत अर्थात असाधारण गुणें से विभूषित सगुण परमात्मा की शरणागति की भावना करता है। ईश्वर भी अपनी सत्य-सन्धता के नियम के अनुसार निर्गुण-चिन्तक को प्राकृत-गुण-शून्य स्वरूप की ओर आकृष्ट करते हैं और सगुणचिन्तक को अप्राकृत-गुण-विशिष्ट स्वरूप की प्रापित के साधन में प्रवृत्त करते हैं। |
उक्त सगुण-स्वरूप में निर्गुण प्रकाश नियत है, किन्तु निर्गुण में सगुण का प्रकाश नियत नहीं है। अब रही यह बात कि किसी साधक की रुचि निर्गुण की ओर होती है, किसी की सगुण की ओर। यह रुचि-भेद वासना के अनुसार होता है। अनादि-परम्पराधीन संस्कारों को ही वासना कहते हैं अथवा दूसरे शब्दों में ‘किये हुए कर्मों की अत्यन्त सूक्ष्मावस्था’ का नाम वासना हैं इन वासनाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान किसी बहुत ऊँचे साधक को ही हो सकता है, साधारण मनुष्यों को नहीं हो सकता। हाँ, फल के द्वारा वासनाओं का अनुमान सब कोई कर सकते हैं। यही वासना साधक को अपने अनुकूल साधन में प्रवृत्त कराती है। पहले साधन का चरम फल ब्रह्मसायुज्य अर्थात् असीम ज्योति में अणु-ज्योति का मिल जाना है। दूसरे साधन का चरम फल ज्योतिष्मान् भगवान में अहैतु की प्रीति का होना ही है। | उक्त सगुण-स्वरूप में निर्गुण प्रकाश नियत है, किन्तु निर्गुण में सगुण का प्रकाश नियत नहीं है। अब रही यह बात कि किसी साधक की रुचि निर्गुण की ओर होती है, किसी की सगुण की ओर। यह रुचि-भेद वासना के अनुसार होता है। अनादि-परम्पराधीन संस्कारों को ही वासना कहते हैं अथवा दूसरे शब्दों में ‘किये हुए कर्मों की अत्यन्त सूक्ष्मावस्था’ का नाम वासना हैं इन वासनाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान किसी बहुत ऊँचे साधक को ही हो सकता है, साधारण मनुष्यों को नहीं हो सकता। हाँ, फल के द्वारा वासनाओं का अनुमान सब कोई कर सकते हैं। यही वासना साधक को अपने अनुकूल साधन में प्रवृत्त कराती है। पहले साधन का चरम फल ब्रह्मसायुज्य अर्थात् असीम ज्योति में अणु-ज्योति का मिल जाना है। दूसरे साधन का चरम फल ज्योतिष्मान् भगवान में अहैतु की प्रीति का होना ही है। |
01:03, 27 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
एवं गुणविशिष्ट ईश्वर की प्रपत्ति (शरणागति)- के स्थूल-रूप से दो साधन बतलाये गये हैं। पहला प्राकृत-सम्बन्ध-निवृत्ति भावनामय है, अर्थात् इस साधन में प्रकृति के सम्बन्ध की निवृत्ति की भावना की जाती है। साधक यह भावना करता है कि उसका साध्य (निर्गुण परमात्मा) प्रकृति के सम्बन्ध से सर्वथा रहित है। दूसरा अप्राकृतगुणविभूति भावनामय है, इस साधन में साधक अप्राकृत अर्थात असाधारण गुणें से विभूषित सगुण परमात्मा की शरणागति की भावना करता है। ईश्वर भी अपनी सत्य-सन्धता के नियम के अनुसार निर्गुण-चिन्तक को प्राकृत-गुण-शून्य स्वरूप की ओर आकृष्ट करते हैं और सगुणचिन्तक को अप्राकृत-गुण-विशिष्ट स्वरूप की प्रापित के साधन में प्रवृत्त करते हैं। उक्त सगुण-स्वरूप में निर्गुण प्रकाश नियत है, किन्तु निर्गुण में सगुण का प्रकाश नियत नहीं है। अब रही यह बात कि किसी साधक की रुचि निर्गुण की ओर होती है, किसी की सगुण की ओर। यह रुचि-भेद वासना के अनुसार होता है। अनादि-परम्पराधीन संस्कारों को ही वासना कहते हैं अथवा दूसरे शब्दों में ‘किये हुए कर्मों की अत्यन्त सूक्ष्मावस्था’ का नाम वासना हैं इन वासनाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान किसी बहुत ऊँचे साधक को ही हो सकता है, साधारण मनुष्यों को नहीं हो सकता। हाँ, फल के द्वारा वासनाओं का अनुमान सब कोई कर सकते हैं। यही वासना साधक को अपने अनुकूल साधन में प्रवृत्त कराती है। पहले साधन का चरम फल ब्रह्मसायुज्य अर्थात् असीम ज्योति में अणु-ज्योति का मिल जाना है। दूसरे साधन का चरम फल ज्योतिष्मान् भगवान में अहैतु की प्रीति का होना ही है। यहाँ ‘भगवान’ शब्द का अर्थ भी जानना आवश्यक है। ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री , ज्ञान, तथा वैराग्य- इन छः गुणों की समाष्टि अर्थात् समुदाय की शास्त्रों में ‘भग’ संज्ञा है। इनमें सर्ववशीकारिता अर्थात सबको वश में करने के सामथर्य का ही नाम ऐश्वर्य है; मन्त्रादि के प्रभाव के समान प्रभाव को वीर्य कहते हैं; वाणी, मन एवं शरीर के सद्गुण विशिष्ट होने की प्रसिद्धि को ही ‘यश’ कहा है; सर्वविध सम्पत्ति का नाम ही ‘श्री’ है; सर्वज्ञता का नाम ही ‘ज्ञान’ है तथा संसार के सारे पदार्थों में अनासक्ति की ही ‘वैराग्य’ संज्ञा है। उपर्युक्त छहों गुण जिनमें सर्वथा और सर्वदा पूर्णरूप से विद्यमान रहे उन्हीं का नाम ‘भगवान’ है। |