श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
यद्यपि भगवत्ता अपरिच्छेद्य अर्थात् असीम वस्तु है; तथापि समझने-समझाने के लिये उसके भीतर दो प्रकार की गुणराशि मानी गयी है; एक ऐश्वर्यपक्षीय; दूसरी माधुर्यपक्षीय। स्थूलरूप से दोनों का विवरण इस प्रकार है। जिसके ज्ञान से गौरव, संकोच, मर्यादा, भय, प्रभृति का उदय हो, उसे ऐश्वर्य समझना चाहिये। एवं जिसके ज्ञान से चित्त में आकर्षण, स्नेह, दर्शनोत्कण्ठा आदि उदित हों; उसे माधुर्य मानना चाहिये। प्रकारान्तर से स्वयं भगवान के चैंसठ गुण शास्त्रों में कहे गये हैं। इनमें पचास तक तो उच्च जीवों में भी भगवत्कृपा से कदाचित् पाँच गुण और हैं जो रुद्रादि में प्रकट होते हैं। दूसरे पाँच श्रीपतितकाल में आविर्भूत हैं, परन्तु शेष चार अर्थात लीलाधिक्य; प्रेम से प्रियाधिक्य; रूपमाधुरी विशेष और वेधुमाधुरी; ये केवल श्रीनन्दनन्दन में ही प्रकाश पाते हैं, अन्यत्र नहीं। शास्त्रों में एक और प्रधान बात लक्ष्य करने योग्य है। वह यह है कि जीवतत्त्व ने यदि मधुररस की उपासना से प्रभु का साक्षात्कार किया है तो वह केवल श्रीकृष्ण स्वरूप में ही, अन्य स्वरूप में साक्षात्कार का प्रमाण नहीं है; शास्त्रों में इस प्रकार का उदाहरण सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर केवल साधनसिद्ध, कृपासिद्ध व्रजगोपियों का ही पाया जाता है। रामायण में एक प्रामाणिक घटना का उल्लेख मिलता है कि श्रीरघुवीरजी के दर्शन से दण्डकारण्यवासी कुछ मुनिगणों के चित्त विचलित हुए थे। उनके भावों को समझकर भगवान ने श्रीमुख से इस आशय का उत्तर दिया कि साधन समाप्त होने पर ही फल-लाभ हुआ करता है, अतः उनकी उस लिप्सा की पूर्ति व्रजलीला में की गयी। यहाँ एक शंका होती है कि श्रीजानकी देवी का भी मधुर रस का भाव प्रसिद्ध है। तब अन्यरूप में इस रस के द्वारा भगवत्साक्षात्कार नहीं हुआ, यह कहना कहाँ तक संगत है? इसका उत्तर स्पष्ट है कि श्रीजनकनन्दिनी तो ह्लादिनी विशेष होने से अन्तरंगा हैं, सुतरां स्वरूप ही हैं, उदाहरण तो तटस्था-शक्तियों का अर्थात् जीवों का चाहिये। वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। इन भावों से अवतारतत्त्व के तारतम्य पर किन्चिन्मात्र भी लक्ष्य नहीं समझना चाहिये, प्रत्युत अवतारों में ऐसा तारतम्य करना तो घोर अपराध है। इसकी घोषणा उपोद्घात में कर दी गयी है, इससे यहाँ पुनरुक्ति की आवश्यकता नहीं। गुणप्रकाश में तो सर्वदा सर्वथा लालीमय स्वतन्त्र प्रभु की इच्छा ही मुख्य नियामिका है, इसमें हम जीवों के तर्कों की दौड़ अनधिकार-चेष्टा में ही परिगणित होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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