भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितएक तीन-तीन मोटर रोककर खड़ा हो जाता है। और एक घर की बकरियों को भी रोक नहीं पाता। इस तरह बुद्धि, भोजन, शक्ति की दृष्टि से समानता नहीं है। इसी तरह आजादी-स्वतन्त्रता कहाँ है जीव में, हाँ भूखे मरने की स्वतन्त्रता अवश्य है, भले ही भूखों मरलो। बाकी दरिद्रता, दीनता, परतन्त्रतादि के बन्धन से विमुक्त हो जाओ, मौत के मुख में न जाओ, बुढ़ापे के पेट में न फँसो- यह स्वतन्त्रता कहाँ है, किसमें है? देह की दृष्टि से नहीं, इन्द्रियों की दृष्टि से नहीं, मन-बुद्धि-अहंकार की दृष्टि से नहीं; लेकिन एक अजर, अमर, अखण्ड विशुद्धात्मा है, वह परमात्मा का पुत्र है, चेतन अमल सहज सुखराशि है, उसी दृष्टि से समानता और स्वतन्त्रता है। गोस्वामी जी कहते हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।[1] आत्म-दृष्टि से ही समानता संभव है। यद्यपि यहाँ देखते हैं कि चूहा को खाने बिल्ला दौड़ता है, बिल्ला को खाने कुत्ता दौड़ता है, कुत्ता को खाने बघर्रा दौड़ता है, बघर्रा का पीछा सिंह करता है और सिंह को शार्दूल उठाकर चम्पत हो जाता है। बड़ी मछलियाँ छोटी मछलीयों को खा जाती है, उन्हें भी उनसे बड़ी मछलियाँ खा जाती हैं। इसी को ‘मात्स्यन्याय’ कहते हैं। इसी तरह परस्पर उत्पीड़न-शोषण की व्यवस्था चलती है। इन सबके बावजूद ‘अमृतस्य पुत्राः’ न भूलो। साथ ही- आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ वासी।। प्रश्न है- जब सभी ईश्वर के अंश हैं, फिर क्यों गड़बड़ी हुई? भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।[3] श्रावण-भादों में गंगा जल भी गन्दा हो जाता है। लोग घर में लाकर निर्मली बूटी डालते हैं, फिटकरी डालते हैं जल फिर से निर्मल निष्कलंक हो जाता है। ऐसे ही समाज में आज का शोषक कल पोषक बन जाता है। कल का पोषक आज शोषक बन जाता है। कल का डाकू वाल्मीकि आज महर्षि वाल्मीकि हो सकता है- जान आदि कवि नाम प्रतापू। भयउ शुद्ध करि उलटा जापू।।[4] इन सब दृष्टियों से ईश्वर का अंश यह आत्मा निर्मल-निष्कलंक पर पवित्र है। गड़बड़ी अविद्या, काम, कर्म के सम्पर्क से हुई है। अवद्यिा काम और कर्म का सम्पर्क हटाया जा सकता है भगवन्नामामृत पान के द्वारा, भगवच्चरितामृत पान के द्वारा और भी विविध उपायों के द्वारा सारे अनर्थों की निवृत्ति हो सकती है। इसलिये प्रह्लाद ने कहा- ‘स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदताम्’ अर्थात दुर्जनता मिटकर सज्जनता आ जाय? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रामचरितमानस 7.116.2
- ↑ रामचरित मानस 1.7.1,2
- ↑ रामचरितमानस 4.13.6
- ↑ रामचरित मानस 1.18.5
- ↑ रामचरित मानस 2.193.8
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