भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितआप अन्तर्यामी हो, सर्वेश्वर हो, छू मन्त्र कर दो, सबकी बुद्धि बदल जाय, आपके लिये क्या कठिनाई है? सब प्राणी आपस में एक-दूसरे का शिव चिन्तन करें, शिवानुसन्धान करें। कोई किसी का अनिष्ट चिन्तन न करें। सब एक-दूसरे का प्रभु चिन्तन करें। हम सबका मन भद्रदर्शी हो, अभद्र चिन्तन न करें। दूसरे का अभद्र तो उसके भाग्यानुसार होगा, न होगा, लेकिन हमारा तो अकल्याण उसी दिन हो जाता है, जिस दिन हम दूसरे का अनष्टि चिन्तन करते हैं। मन माया का अंश है, माया में जो चमत्कार है वही चमत्कार मन में हैं। क्योंकि माया क्षम में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का निर्माण कर देती है, क्षण में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड का पालन, संरहरण सब कुछ करती है। ऐसे मन भी समर्थ है। बड़े-बडे़ योगीन्द्र मुनीन्द्र-आमलात्मा- परमहंस विश्वामित्र, वशिष्ठादि संकल्प मात्र से कितनी-कितनी वस्तुओं का निर्माण कर सके। ऋषि-महर्षियों के लिये कुछ भी असंभव नहीं। उनके शब्दों में यह बल है कि घट को पट कहें तो झटपट घट पट बन जाय। रम्भा को पहाड़ी कह दिया तो पहाड़ी बन गयी। मेनका को शैली कह दिया तो मेनका शैली बन गयी। इस तरह मन में बहुत चमत्कार है, परन्तु दुराचार, दुर्विचार, पापाचार से मन की शक्ति क्षीण हो जाती है। सदाचार, सद्विचार, सद्धर्म सत्कर्म के प्रभाव से मन की संकल्प-शक्ति क्षींण हो जाती है। इसलिये हमारा मन भद्रवस्तु का अनुसन्धान करें, भगवत्स्रूप में प्रविष्ट हो। श्रीभगवान ने प्रह्लाद को बहुत-बहुत वरदान दिया। हम समय भगवान उनकी रक्षा में ही रहते हैं। भक्तराज ने स्पष्ट बताया- बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह! नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः। हे नृसिंह! इस लोक में दुःखी जनों का दुःख मिटाने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके द्वारा उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि माता-पिता भी बालक की रक्षा नहीं कर सकते, औषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 7.9.19
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