भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितजिस पर कृपा नहीं करते उसका घमण्ड बढ़ने देते हैं। नारद जी को अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का घमण्ड हो गया। भगवान ने, ‘नारद जी के अहंकार के तरु को उखाड़ फंकना चाहिये’ ऐसा सोचा और उसके उपयुक्त रूपक किया- करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।। भगवान देवताओं के सामने अनन्त तेजःपुज्य एक यक्ष के रूप में प्रकट हुए। देवताओं ने देखा तो घबड़ा गये। मन में हुआ-‘कहीं यह हमारे पक्ष का हुआ तब तो विजय बद्धमूल, अगर कहीं विपक्ष का यह हुआ तो हमारी विजय खतरे में पड़ जायगी।’’ अग्नि को कहा- ‘अग्नि देखो जाकर यह कौन है?’ अग्नि गये। भगवान का दर्शन किया। कुछ पूछने की हिम्मत ही न पड़ी।
भगवान ने ही पूछा- ‘कोअसि’=‘कौन है?’’ अग्नि कई उपाधियों का पुछल्ला-लगाकर बोले-‘अग्नि हैं, वैश्वानर-जातवेदा हैं।’ भगवान ने कहा-‘‘अच्छा, अच्छा; जातवेदा जी! आप क्या कर सकते हैं, कौन सा चमत्कार आप में है?’’ अग्नि बोले-‘‘सारे संसार को क्षणभर में भस्म कर दूँ।’’ भगवान बोले-‘‘अभी सारे संसार को तो भस्म कर देने का मौका है नहीं। यह तिनका है, इसी को जलाओ।’’ तदुप्रेयाय सर्वजनेव तन्न शशाक दग्धुं स तत एव देवताओं ने वायु को भेजा। वायु भी गये। उनसे भी भगवान ने वैसे ही पूछा- ‘‘आप कौन हैं?’’ वायु ने कहा-‘‘हम मातरिश्वा हैं महाराज! यजुर्वेद का प्रादुर्भाव हम से ही हुआ है।’’ वायु से यजुर्वेद का प्रादुर्भाव, अग्नि से ऋग्वेद का प्रादुर्भाव और सूर्य से सामवेद का प्रादुर्भाव हुआ है। भगवान् ने कहा- ‘‘अच्छा-अच्छा, आप क्या कर सकते हो?’’ वायु ने कहा- ‘‘कहो तो संसार को क्षणभर में उड़ाकर जहन्नुम में भेद दूँ।’’ भगवान् ने कहा-‘‘जाने दो[4], संसार को उड़ाने का प्रसंग अभी नहीं है। जिस तृण को तुम्हारा अग्नि जला नहीं सका, तुम जरा उसको उड़ा दो।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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