भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितवायु ने बड़ा वेग भरा, वह तृण भी टस-से-मस नहीं हुआ। वायु भी बहुत शरमिन्दा हुआ। तब इन्द्र आया। इन्द्र से तो भगवान बोले ही नहीं, अन्तर्धान हो गये। इन्द्र ने सोचा- ‘अग्नि और वायु से यक्ष बोला तो सही, हम को तो किसी खेत की मूली नहीं समझा, हमसे बोला ही नहीं।’ महान मानी इन्द्र वहीं तप करने लगा। बहुत तप किया। अन्त में अनन्त ब्रह्माण्डजननी राजराजेश्वरी हिमवान की दुहिता[1] हैमवती वहाँ आई। इन्द्र ने उनसे पूछा- ‘माँ यहा कौन था?’ उन्होंने कहा- ‘ब्रह्म था, जिसने तुम्हें महिमान्वित किया है।’ स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्षमिति।[2] यह ब्रह्म पावर हाउस है। जैसे-बिजली के लट्टुओं में प्रकाश कब तक? जब तक पावर हाउस से कनेक्सन है तब तक? विद्युत केन्द्र का सम्बन्ध कटते ही लट्टुओं का प्रकाश खतम, कल-कारखाने खतम। वैसे ही हम में, तुम में, सब में जितनी क्रिया-शक्ति है, सबका आधार वही है, सबका मूल वही है। महान पावर हाउस वही है, उसी में सब कुछ है। जिससे अनन्त ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण होता है, वही ब्रह्म है। प्रह्लाद की दृष्टि में वही केनोपनिषद् का ब्रह्म था। वही पहलवानों का पहलवान है। जैसे ऊष्मा और प्राण के बिना पहलवान भी मुर्दा। रावण, कुम्भकर्ण, हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, शुम्भ-निशुम्भ ये जितने भी बलवान-पहलवान शूरवीर हुए हैं- ये तभी तक रहे जब तक अग्नि और वायु[4] इनमें बने रहे। फिर साक्षात अग्नि और वायु की भगवान के सम्मुख यह दशा हुई तो दूसरे की क्या दशा? प्रह्लाद ने कहा-‘राजन्! आपका भी बल वही है। अन्य जो महान बलवान हैं, उन सब का भी एकमात्र आधार वही।’ इस तरह भक्तराज प्रह्लाद ने बहुत कुछ कोशिश की हिरण्यकशिपु रास्ते पर आ जाय; परन्तु उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रह्लाद ने कहा- ‘‘हमारे भगवान सर्वत्र हैं और सर्वस्वरूप हैं।’’ हिरण्यकशिपु ने कहा- ‘‘कौन है वह मेरे अतिरिक्त जगदीश्वर यदि वह सर्वत्र है तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता’’- यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः। हिरण्यकशिपु के ऐसा कहने पर अपने भृत्य-भक्तराज प्रह्लाद के भाषित को सत्य करने के लिये नृसिंह भगवान प्रकट हुए- सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्ति च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः। (इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद की वाणी सत्य करने के लिये समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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