भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 194

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

षष्ठ-पुष्प

2. माया संतरण का अमोघ उपाय

इस तरह जीवों ने भगवान् से प्रार्थना की ‘अर्जित! ‘अजां जहि’, ‘हे अजित! माया को मारो।’ भगवान् ने कहा- हम माया को मार देंगे, इससे तुम्हारा क्या होगा? तुम माया को मरवा कर करोगे भी क्या? तुम माया से घबराते हो न? तुम मेरी शरणागति स्वीकार कर लो, मेरे प्रति प्रपन्न हो जाओ-

 
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।[1]

(मुझे परमेश्वर की यह त्रिगुणात्मिका माया दुस्तर है। जो मुझ माया पति परमेश्वर के ही सर्वात्मभाव से शरणागत हो जाते हैं, वे माया से पार हो जाते हैं।)
फिर तुम्हारा माया के बिना कोई काम भी तो नहीं चलेगा? इसलिये माया को मारने से क्या लाभ? ब्रह्मसाक्षात्कार क्या है, माया का परिणाम बुद्धिवृत्ति ही तो है? माया न होगी तो कहाँ से ओयगी बुद्धिवृत्ति? इसलिये कहा- ‘मायां वर्णयतोअमुष्य माययात्मा न मुह्यति’[2] = जो ईश्वर की माया का वर्णन करता है, अनुमोदन करता है, श्रद्धा पूर्वक श्रवण करता है, उसकी अन्तरात्मा माया से मोहित नहीं होती। माया उसकी सहायता करती है और क्या चाहिये? इसलिये माया का वर्णन करो, श्रवण करो, माया की भक्ति करो। पर एक बात है, माया स्वतन्त्र नहीं है जो कि केवल उसी का चिन्तन-मनन करो। भगवदीयत्वेन माया का चिन्तन-मनन -श्रवण करो।[3] माया भगवान् की है- ‘मम माया’[4], ‘या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता’[5] काम वर्णन-काम क्रीडा का वर्णन ब्रजवधूजनों के साथ जो परात्पर परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का विक्राडन है, इसको जो धीर श्रद्धापूर्वक श्रवण करता है, वर्णन करता है, वह भगवान् में पराभक्ति लाभ कर अतिशीघ्र ही हद्रोग का उन्मूलन कर भगवद्भाव को प्राप्त हो जाता है-

विक्रीडितं ब्रजवधूभिरिदं च विष्णोः
श्रद्धान्वितोअनुश्रृणुयादय वर्णयेद् यः।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः।।[6]

इसी तरह विचार करना चाहिये-

शरीर में चेतना कहाँ से आती है, माया से ही आती है न!
‘या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते’[7]

आत्मचैतन्योपेत- आत्मचैतन्य के प्रतिबिम्ब से युक्त जो देहव्यापिनी अन्तःकरण की वृत्ति वही चेतना है। उस चेतना के कारण ही हम को शीत-उष्ण का ज्ञान होता है। चेतना न हो तो कोई व्यवहार ही न चले। इसलिये जो कुछ व्यवहार चल रहा है, वह सब चेतना के आधार पर। वह चेतना क्या है? माया का ही एक अंश है। धर्म के लिये अर्थ के लिये वृद्धि चाहिये। कथा सरितसागर में लिखा है- किसी के पास पूँजी नाम की चीज एक भरी हुई चुहिया थी। किसी की बिल्ली बीमार थी, उसने उसकी मरी चुहिया खरीद ली। उसी पैसे से वह करोड़पति बन गया। अच्छी बुद्धि होती है तो एक फील्डमार्शल एक छोटी-सी सेना की टुगड़ी के द्वारा बड़े से बडे़ सेनापतियों को परास्त कर देता है। कर्म का ज्ञान बुद्धि से होता है, बुद्धि न होगी तो कर्म का ज्ञान कैसे होगा? श्रुत्वा धर्मान्विजानाति ज्ञात्वातदनुतिष्ठिति’ धर्म का ज्ञान होता है तो धर्मानुष्ठान में सौविध्य होता है। ज्ञान और भक्ति के लिये बुद्धि चाहिये। जहाँ आत्मसाक्षात्कार बुद्धिवृत्ति का परिणाम है, वहाँ आह्लादिनी-शक्ति-समन्वित जो स्निग्ध अन्तःकरण की भगवदाकाराकारित बुद्धिवृत्ति है[8] वही भगवद्भक्ति है। वह बुद्धि भी क्या है, माया- या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिया[9] कई व्यक्तियों को नींद नहीं आती। एक दिन इन्द्र को नींद नहीं आयी। अश्विनीकुमार वैद्य को बुलाया और कहा- ‘नींद नहीं आ रही है।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवद् गीता 7.14
  2. भागवत 2.7.53
  3. ‘मायातरणार्थ जिज्ञासुभिश्चिन्त्यते यत्तितीर्षितं भगवति तत्प्रथमं जिज्ञास्यते एव’।(वंशीधरी, भागवत 11.6.11)
    माया तरने की जिन्हें इच्छा है, ऐसे जिज्ञासुओं के लिये माया चिन्तन करने योग्य है, क्योंकि जिसे तरने की इच्छा जिज्ञासा उसका चिन्तन अत्यावश्यक है।
  4. भगवद्गीता 7.14
  5. दुर्गासप्तशती 5.14
  6. भागवत 10.33.40
  7. दुर्गासप्तशती 5.17
  8. मनोवृत्ति
  9. दुर्गासप्तशती 5,20

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