विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प4. तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधानभक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः। अर्थात् जैसे कोई भूखा आदमी मधुर मनोहर पक्वान्न खाने लग जाय, खीर खाने लग जाय, लड्डू खाने लग जाय तो प्रत्येक ग्रास में तुष्टि भी होगी, पुष्टि भी होगी और क्षुधा की निवृत्ति भी होगी; वैसे ही भगवच्चरित्रामृत का पान करते-करते भक्ति भी होगी, विरक्ति भी होगी और भगवत्प्रबोध भी होगा। भगवान में राग, संसार से वैराग्य और परमात्मा का ज्ञान होगा। फिर क्या है? वैराग्य है सार जिसमें ऐसा जो भगवत्प्रबोध उसे प्राप्त होते ही भक्त अकुण्ठद्यधिष्ण्य भगवान को प्राप्त हो जाते हैं। एक रास्ता यही है। दूसरा रास्ता है- निर्गुणोपासक आत्मा में मन को एकाग्र करते हैं। इसका क्या रास्ता है? किसी ने कहा घडे़ में आकाश भर दो। तो क्या आकाश को लाकर घडे़ में भरते हैं? अरे, घड़ा पैदा होने से पूर्व आकाश से भरा हुआ है। घड़ा जब पैदा हुआ तब आकाश से भरपूर ही पैदा हुआ। तब फिर इसका क्या अर्थ है कि घडे़ को आकाश से भर दो? इसका अर्थ है- घड़े को ख़ाली कर दो। घडे़ में मिट्टी का तेल भर दिया है, धूलि भर दी है, अनाज भर दिया है तो आकाश छिप गया। इन सबको निकाल दो, निकाल देने पर आकाश भरा हुआ अवशिष्ट रह गया। ऐसे ही जिस दिन अन्तःकरण पैदा हुआ, अनन्त अखण्ड परात्पर परब्रह्म से भरपूर ही पैदा हुआ। हमने उसमें प्रपंच भर लिया। शब्द भर लिया, स्पर्श भर लिया, रूप भर लिया, रस भर लिया, गन्ध भर लिया। हमने अन्तःकरण को[2] शब्दाकार, स्पर्शाकार, रूपाकार,रसाकार और गन्धाकार कर लिया है। तब क्या करें? इन सबको निकाल दें।[3] शब्द भी न रहे, स्पर्श भी न रहे, रूप भी न रहे, रस भी न रहे और गन्ध भी न रहे। इन सबको निकाल दो। देखो जरा क्या हो जाता है? आँख के सामने अँधेरा’, अँधेरा’, अँधेरा हो जाता है। आँख खोलते ही सृष्टि दीखने लगती है। यह तो स्थिति है। मन में कोई विचार न रहे, मन में कोई प्रकाश न रहे, मन में कुछ भी न रहे ऐसा कहाँ होता है? इसके लिये भगवान कपिलदेव जी महाराज ने देवहूति को सगुण-साकार की उपासना बतायी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 11.42.43
- ↑ बुद्धि-वृत्ति या चित्तवृत्ति को
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यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।(कठोपनिषद् 2.3.10)
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