विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति-भगवान के पादारविन्द का चिन्तन, उनके हस्तारविन्द का, उनके वक्षःस्थल का और मुखारविन्द का चिन्तन करना चाहिये। ये सब अखण्ड, अनन्त, परात्पर, परब्रह्म रूप ही हैं। चिन्तन के द्वारा मन को एकाग्र करना चाहिये, फिर किसी का स्मरण, न करें। मन जहाँ जाकर प्रसन्न हो जाय, निविकल्प होने की स्थिति में होकर निर्विकल्प हो जाय, वही परम फल है। रजोगुण से आक्षिप्त मन विमूढ़ रहता है। उसे एक देख में स्थितर करने का अभ्यास ‘धारण’ है। इस तरह संसार से मन को हटाकर भगवान के स्परूप में उसे लगा लेना चाहिये। इस तरह बाह्य विषयों ने इन्द्रियों को बुद्धि पूर्वक हटाकर और श्रीहरि के मंगलमय एक-एक श्री अंग का ध्यान करना चाहिये। ऐसा करते-करते मन जब निविषय होने लगे तब कुछ भी चिन्तन न करे- तत्रैकावयवं ध्यायेदव्युच्छिन्नेन चेतसा। (स्थिर चित्त से भगवान् के श्रीविग्रह के किसी एक अंग का ध्यानन करे। इस प्रकार एक-एक अंग का ध्यान करते-करते विषयवासना से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और चिन्तन ही न करे। वही भगवान विष्णु का परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेरम रूप आनन्द से भर जाता है।)
1. (‘देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्यु व्यते बुधैः।।’ त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषत् 28 के अनुसार देह और इन्द्रियों से वैराग्य ‘यम’ है। योग दर्शन के अनुसार यम पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 2.1.19
- ↑ योग दर्शन 2.29
- ↑ योग दर्शद 2.30
- ↑ योग दर्शन 2.32
- ↑ 2.46
- ↑ 2.49
- ↑ 2.54
- ↑ 3.1
- ↑ 3.2
- ↑ 3.3
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