विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति-वाराणसी में माना जाता है कि मुसलमान मर जाय, ईसाई मर जाय- उसे भी मुक्ति[1] मिलती है। इसी प्रकार से भिन्न-भिन्न पुरियाँ हैं, उन सबकी[2] यही महिमा है- अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका। मथुरा की महिमा इस प्रकार है- काश्यादयो यद्यपि सन्ति पुर्यस्तासां तु मध्ये मथुरैव धन्या। काशी आदि पुरियाँ यदि हैं तो उन सबमें मथुरा ही धन्य है। मथुरा में जन्म होने से भी मुक्ति हो जाय, संस्कार-मौंजी बन्धन हो जाय तो भी मुक्ति हो जाय, मृत्यु हो जाय तो भी मुक्ति हो जाय हो भी मुक्ति हो जाय। सब धामों की बड़ी महिमा है। इस तरह नाम और धाम की महिमा से सबकी मुक्ति मान्य है। अपने अधिकारानुसार भगवान के किसी नाम का जप करना चाहिये, लेकिन निर्बीज प्राणायाम नहीं, सबीज-प्राणायाम। मन्त्र का अनुसंन्धान करते हुए जो प्राणायाम किया जाता है, उसे सबीज-प्राणायाम कहते हैं। पूरक, कुम्भक, रेचक प्राणाचामों की लगाम के द्वारा मन को वैसे ही अवरूद्ध किया जाता है, जैसे भागते हुए घोडे़ को लगाम पकड़ कर खींच लिया जाता है। कई ढंग का प्राणायाम है। कई लोग केवली कुम्भक[5] करते हैं। उसमें रेचक,पूरक की गौणता होती है। इसके द्वारा प्राणों को जहाँ-का-तहाँ रोका जा सकता है। छोटे-छोटे प्राणायाम आधा-आधा मिनट के पौन-पौन मिनट के, एक-एक मिनट के होते हैं। चंचल मन को रोकने के लिये प्राणायाम लगाम है। तुलसीदास जी महाराज ने लिखा है- नारद जी ने भगवान श्रीहरि का स्मरण करते हुए श्वांस की गति बाँध दी। उनका मन विमल हुआ और सहज समाधि लग गयी। हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि।। श्वाँस की जो उच्छृखल चाल[7] है, उसे छोटे-छोटे प्राणायामों के द्वारा नियन्त्रित करके ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। प्रणव या प्रणवात्मक भगवन्नाम के सहित प्राणायाम करके, नाम के एक-एक अवयव[8] का साथ ही उसके अर्थ भूत भगवान सर्वेश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण चन्द्र परमानन्द के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये। वं=उ़+अ़+म्; रं= ऱ+अ़+म् सबमें प्रणव ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काशी मरत जन्तु अवलोकी। जासु नाम बल करऊँ बिसोकी।।(रामचरितमानस 1.118.1)
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत श्रुति सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहि समान।।(विनय पत्रिका 3) - ↑ सप्त पुरियों की
- ↑ गरुड़ महापुराण उत्तर 28.3
- ↑ श्रीपाद्य पँचमे पाताल खण्डे मथुरामाहात्म्ये 28.3
- ↑
यावत्केवलसिद्धिः स्यात्सहितं तावदभ्यसेत्।
श्रेचकं पूरकं मुक्त्वा सुखं यद्वायुधारणम्।।
प्राणायामोअयमित्युक्तः स वै केवल कुंभकः।
कुम्भके केवले सिद्धे रेचपूरविवर्जिते।।
न तस्य दुर्लभं किचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
शक्तः केवल कुम्भेन यथेष्टं वायुधारणात।।
राजयोगपदं चापि लभते नात्रः संशयः।
कुंभकात्कुडलीबोधः कुण्डलीबोधती भवेत्।।
अनर्गला सुषुम्ना च हठसिद्धिश्च जायते।
हठं विना राजयोगः राजयोगं विना हठः।।
न सिध्यति ततो युग्ममानिष्पत्तेः समभ्यसेत्।
कुंभकं प्राणरोधांते कुर्याच्चित्त निराश्रयम्।।
एबमभ्यासयोगेने राजयोगपदं व्रजेत्।।(हठयोग प्रदीपिका 2.72-77) - ↑ रामचरितमानस 2.124.1-4
- ↑ चलन
- ↑ अक्षर
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