भागवत सुधा -करपात्री महाराजचतुर्विध अभाव का जो अप्रतियोगी वह ब्रह्म। अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी देश परिच्छिन्न, अन्योन्याभाव का प्रतियोगी वस्तु परिच्छिन्न, प्रागभाव प्रध्वंसाभाव का प्रतियोगी काल-परिच्छिन्न। जो चारों अभावों का प्रतियोगी नहीं वह देश काल-वस्तु-परिच्छेद शून्य। ऐसा जो अनन्त-बृहत् उसमें गुणगणों के द्वारा महत्त्वातिशय का आधान नहीं हो सकता। तब क्या होगा? गुण गणों के द्वारा आनन्दातिशय का भगवान् में आधान किया जाय? यह भी नहीं हो सकता। आनन्द जहाँ सीमित हो, वहाँ आनन्द बढ़े। जहाँ निःस्सीम आनन्द पहले से है, वहाँ आनन्द की वृद्धि भी नहीं हो सकती। ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’[1] ‘रसो वै सः’[2]
तब गुणगण क्या करेंगे? अनर्थ निवर्हण करेंगे? कोई भी अनर्थ भगवान में पहले से है ही नहीं। अनर्थ हो तब निवर्हण हो। इस तरह गुणगण के प्रयोजन तीन हो सकते हैं-
गुणगण भगवान में निरर्थक हैं। भगवान स्वयं ही कहते हैं भागवत में- मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम्। ( मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और किसी की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असंगता, आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझ में ही प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि मैं सबका हितैषी सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। वस्तुतः वे गुण हैं भी नहीं, सर्वथा दिव्य ही हैं।) यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोगमायाबलं दर्शयता गृहीतम्। (भगवान ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिए मानलीलोपयुक्त जो दिव्य श्री विग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी मोहित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरता की पराकाष्ठा थी उस रूप में। उससे आभूषण भी विभूषित हो जाते थे।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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