भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवान् के मंगलमय अंग भूषणों के भूषण, अलंकारों के अलंकार हैं। वक्षोअधिवासमृषभस्य महाविभूतेः पुंसां मनोनयननिवर्वृतिमादधानम्। ( श्री हरि का वक्षः स्थल महालक्ष्मी का निवास स्थान है। लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है। ऐसा ध्यान करके फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिए ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्रमंथन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारों वाले’ सुदर्शन चक्र का तथा उनके कर-कमलों में राजहंस के समान विराजमान शंख का चिन्तन करे। श्रीभगवान का जो काण्ड है, उसने कौस्तुभमणि को धारण करके कौस्तुभमणि की शोभा बढ़ा दी है। कौस्तुभमणि से भगवान के अंग की शोभा नहीं बढ़ी। हाँ फिर अलंकारों ने भगवान के अंगों से अलंकृत होकर भगवान के मंगलमय अंग को अलंकृत किया। इस तरह श्रीहरि के मंगलमय अंगों को अलंकारों ने अलंकृत किया सही, पर पहले वे स्वयं ही श्री हरि के मंगलमय अंगों से अलंकृत हुए। ऐसे गुणों ने भी तप किया जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर तक। प्रभु प्रसन्न हुए। गुणों ने कहा- ‘‘प्रभो आप नहीं स्वीकार करोगे तो हम दोष हो जायेंगे, गुण कहाँ रहेंगे? जिसको प्रभु ने नहीं स्वीकार किया वह गुण है? नहीं वह तो दोष है। इसलिए आप हम को गुण बनाना चाहते हो तो अंगीकार करो।’’ प्रभु ने अनुग्रह करके गुणों को अंगीकार कर लिया। इसलिए- निर्गुणं मां गुणाः सर्वे भजन्ति निरपेक्षकम्।’[2] भगवान् निर्गुण हैं, निर्गुण भगवान को गुण भजते हैं, अतः भगवान सगुण भी कहे जाते हैं। अशब्दगोचरस्यापि तस्य वै ब्रह्मणो द्विज। अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणिपादादि शून्य होने के कारण- हे द्विज! ब्रह्म यद्यपि शब्द का विषय नहीं है, तथापि उपासना के लिए उसका भगवत्-शब्द से उपचारतः कथन किया जाता है।।) व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुण विगत विनोद। जो व्यापक ब्रह्म-निरजंन, निर्गुण ब्रह्म है, वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्रनन्दन के रूप में और माधुर्यसार सर्वस्व की अधिष्ठात्री राधारानी बृषभानुनन्दिनी नित्य निकुंजेश्वरी के रूप में प्रकट हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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