भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 141

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

भगवान् के मंगलमय अंग भूषणों के भूषण, अलंकारों के अलंकार हैं।

वक्षोअधिवासमृषभस्य महाविभूतेः पुंसां मनोनयननिवर्वृतिमादधानम्।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थ कुर्यान्मिनस्यखिललोकनमस्कृतस्य।।
बाहूश्च मन्दगिरेः परिवर्तनेन निर्णिक्तबाहुवलयानधिलोकपालन्।
संचिन्तयेद्दशतारमसह्यतेजः शंख च तत्करसरोरुहराजहंसम्।।[1]

( श्री हरि का वक्षः स्थल महालक्ष्मी का निवास स्थान है। लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है। ऐसा ध्यान करके फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिए ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्रमंथन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारों वाले’ सुदर्शन चक्र का तथा उनके कर-कमलों में राजहंस के समान विराजमान शंख का चिन्तन करे। श्रीभगवान का जो काण्ड है, उसने कौस्तुभमणि को धारण करके कौस्तुभमणि की शोभा बढ़ा दी है। कौस्तुभमणि से भगवान के अंग की शोभा नहीं बढ़ी। हाँ फिर अलंकारों ने भगवान के अंगों से अलंकृत होकर भगवान के मंगलमय अंग को अलंकृत किया। इस तरह श्रीहरि के मंगलमय अंगों को अलंकारों ने अलंकृत किया सही, पर पहले वे स्वयं ही श्री हरि के मंगलमय अंगों से अलंकृत हुए। ऐसे गुणों ने भी तप किया जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर तक। प्रभु प्रसन्न हुए। गुणों ने कहा- ‘‘प्रभो आप नहीं स्वीकार करोगे तो हम दोष हो जायेंगे, गुण कहाँ रहेंगे? जिसको प्रभु ने नहीं स्वीकार किया वह गुण है? नहीं वह तो दोष है। इसलिए आप हम को गुण बनाना चाहते हो तो अंगीकार करो।’’ प्रभु ने अनुग्रह करके गुणों को अंगीकार कर लिया। इसलिए- निर्गुणं मां गुणाः सर्वे भजन्ति निरपेक्षकम्।’[2] भगवान् निर्गुण हैं, निर्गुण भगवान को गुण भजते हैं, अतः भगवान सगुण भी कहे जाते हैं।

अशब्दगोचरस्यापि तस्य वै ब्रह्मणो द्विज।
पूजायां भावच्छब्दः क्रियते ह्युपचारतः।।[3]

अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणिपादादि शून्य होने के कारण- हे द्विज! ब्रह्म यद्यपि शब्द का विषय नहीं है, तथापि उपासना के लिए उसका भगवत्-शब्द से उपचारतः कथन किया जाता है।।)
इस तरह भगवान सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं। सगुणोपासक- निर्गुणोपासक दोनों ही भगवान् का भजन करते हैं। इसलिए-

व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुण विगत विनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद।।[4]

जो व्यापक ब्रह्म-निरजंन, निर्गुण ब्रह्म है, वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्रनन्दन के रूप में और माधुर्यसार सर्वस्व की अधिष्ठात्री राधारानी बृषभानुनन्दिनी नित्य निकुंजेश्वरी के रूप में प्रकट हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत 3/28/26,27
  2. भा0 11,13,40
  3. श्री विष्णु पुराण अध्याय 5 अंश 6।71
  4. रामचरितमानस 1/198

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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