भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 102

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

तपस्वियों में श्रेष्ठ अमोघ ज्ञानवान् ब्रह्मा जी ने एक सहस्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्रचित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को जीतकर सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाला घोर तप किया।। 8।।
तप से प्रसन्न हो भगवान ने उन्हें अपना धाम दिखाया, जिससे उत्तम कोई लोक नहीं है, जो सब प्रकार से क्लेश, मोह और भय से रहित है तथा जिसकी पुण्यवान देवता स्तुति करते हैं।।9।।
श्रीभगवान ने चतुःश्लोकीभागवत रूप में श्रीमद्भागवत के परम तत्त्व का उपदेश किया-

ज्ञानं परम गुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।
सरहस्यं तदगं च गृहाण गदितं मया।।
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।[1]

हे प्रिय! मैं तुम्हें विविध जन्मकर्मों की दिव्यता के प्रतिबोधक विज्ञान सहित अपने तत्त्व का परम गुह्य ज्ञान तथा रहस्य के सहित उसके भक्ति योग आदि अंग बतलाता हूँ, मेरे कहे हुए उस ज्ञान को तुम यथावत ग्रहण करो।।30।।
जिससे कि मेरा परिणाम, मेरी सत्ता तथा मेरे रूप, गुण और कर्म जैसे हैं- इस सब बातों का तत्त्वतः ज्ञान मेरी कृपा से तुम्हें प्राप्त हो जाय।। 31।।

अहमेवासमेवागे्र नान्यद्यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योअवशिष्येत सोअस्म्यहम्।।
ऋतेअर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाअअभासो यथा तमः।।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाअअत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां[2] यत् स्यात् सर्वत्र सर्वद।।[3]

सृष्टि से पूर्व मैं ही था, उस समय सत् स्थूल असत् सूक्ष्म और इनका कारण प्रकृति कुछ भी न था। सृष्टि के अनन्तर मैं ही हूँ, यह सम्पूर्ण जगत भी मैं ही हूँ तथा इनका अन्त होने पर जो बच रहता है वह भी मैं ही हूँ।।32।।
दो चन्द्रमा आदि आभास की भाँति जिससे यह प्रपंच बिना हुआ ही प्रतीत होता है और जिससे नित्य विद्यमान रहते हुए भी आत्मा ताराओं के मध्यवर्ती राहु की भाँति नहीं ज्ञात होता, उसे आत्मा की (मेरी) माया जाननी चाहिये।।33।।
जिस प्रकार समस्त छोटे-बडे़ भौतिक पदार्थों से महाभूत उनके कारण रूप से प्रविष्ट होते हुए भी वास्तव में अप्रविष्ट ही हैं, उसी प्रकार मैं भी सम्पूर्ण प्राणियों में उनके आत्म-स्वरूप से स्थित हुआ भी वास्तव में उनसे अलग ही हूँ।।34।।
अन्वय व्यतिरेक दोनों हेतुओं से सिद्ध होता है कि भगवान सदा ही सर्वत्र व्याप्त हैं- और बस यह बात आत्मतत्त्व के जिज्ञासुओं को जानने योग्य है।। 35।।)
उक्त परमतत्त्व के उपदेष्टा श्रीमन्नारायण परात्पर परब्रह्म ही हैं, इसमें कोई विवाद नहीं। उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान का ही ब्रह्मा ने नारद को उपदेश किया। श्रीमन्नारायण ही ब्रह्म रूप में आविर्भूत हुए, उन्होंने ही ब्रह्मा को परमतत्त्व का उपदेश किया और उनकी प्रेरणा से ही ब्रह्मा ने नारद को श्रीमद्भागवत का उपेदश किया। इस तरह बह्मा के रूप में श्रीमन्नारायण ही इसके उपदेष्टा सिद्ध हुए। इसी तरह भगवान के द्वारा उपदिष्ट और प्रेरित भगवत्स्वरूप नारद ने व्यास को श्रीमद्भगवान् की प्रेरणा से शुक को भागवात का उपदेश किया। श्रीशुक ने राजा परीक्षित को उपदेश किया। अरे भाई! कोई भी करे अंत में प्रेरक श्रीभगवान् ही हैं-'उर प्रेरक रद्युवंशविभूषण'।

अंततोगत्वा सर्वान्तर्यामी सर्वद्रष्टा भगवान हो श्रीमद्भागवत हैं और भगवान ही श्रीमद्भागवत के बतलाने वाले तत्तत् आचार्य हैं। विशेष करके परमहंस श्रीशुकदेव जी महाराज इस सब में बहुत प्रमुख हैं, क्योंकि वे आप्तकाम पूर्णकाम, आत्माराम, परमनिष्काम हैं। भगवान परात्पर परब्रह्म तो अनन्त ब्रह्माण्ड के उत्पादन, पालन और संहरणादि में लगे हैं। ब्रह्मा, विष्णु प्रपंञ्च की सृष्टि और रक्षा में लगे हैं। नारद भगवद्गुणगान में लगे हुए हैं। लेकिन आत्मकाम, पूर्णकाम, आत्माराम परमनिष्काम जिनको कहना चाहिए वे शुकदेव जी हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत् 2/9/30-31
  2. वह भगवान सारे जगत में अपने सत्तात्मक स्वरूप से व्याप्त हैं- ‘यह उनका अन्वय है। जगत को सम्पूर्ण रीत्याप पूर्ण कर और भी अतिमहत् में स्थित रहता है, यह उसका व्यतिरेक है।
  3. श्रीमद्भागवत 2/9/32-35

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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