भागवत सुधा -करपात्री महाराज
तपस्वियों में श्रेष्ठ अमोघ ज्ञानवान् ब्रह्मा जी ने एक सहस्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्रचित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को जीतकर सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाला घोर तप किया।। 8।।
तप से प्रसन्न हो भगवान ने उन्हें अपना धाम दिखाया, जिससे उत्तम कोई लोक नहीं है, जो सब प्रकार से क्लेश, मोह और भय से रहित है तथा जिसकी पुण्यवान देवता स्तुति करते हैं।।9।।
श्रीभगवान ने चतुःश्लोकीभागवत रूप में श्रीमद्भागवत के परम तत्त्व का उपदेश किया-
ज्ञानं परम गुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।
सरहस्यं तदगं च गृहाण गदितं मया।।
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।[1]
हे प्रिय! मैं तुम्हें विविध जन्मकर्मों की दिव्यता के प्रतिबोधक विज्ञान सहित अपने तत्त्व का परम गुह्य ज्ञान तथा रहस्य के सहित उसके भक्ति योग आदि अंग बतलाता हूँ, मेरे कहे हुए उस ज्ञान को तुम यथावत ग्रहण करो।।30।।
जिससे कि मेरा परिणाम, मेरी सत्ता तथा मेरे रूप, गुण और कर्म जैसे हैं- इस सब बातों का तत्त्वतः ज्ञान मेरी कृपा से तुम्हें प्राप्त हो जाय।। 31।।
अहमेवासमेवागे्र नान्यद्यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योअवशिष्येत सोअस्म्यहम्।।
ऋतेअर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाअअभासो यथा तमः।।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाअअत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां[2] यत् स्यात् सर्वत्र सर्वद।।[3]
सृष्टि से पूर्व मैं ही था, उस समय सत् स्थूल असत् सूक्ष्म और इनका कारण प्रकृति कुछ भी न था। सृष्टि के अनन्तर मैं ही हूँ, यह सम्पूर्ण जगत भी मैं ही हूँ तथा इनका अन्त होने पर जो बच रहता है वह भी मैं ही हूँ।।32।।
दो चन्द्रमा आदि आभास की भाँति जिससे यह प्रपंच बिना हुआ ही प्रतीत होता है और जिससे नित्य विद्यमान रहते हुए भी आत्मा ताराओं के मध्यवर्ती राहु की भाँति नहीं ज्ञात होता, उसे आत्मा की (मेरी) माया जाननी चाहिये।।33।।
जिस प्रकार समस्त छोटे-बडे़ भौतिक पदार्थों से महाभूत उनके कारण रूप से प्रविष्ट होते हुए भी वास्तव में अप्रविष्ट ही हैं, उसी प्रकार मैं भी सम्पूर्ण प्राणियों में उनके आत्म-स्वरूप से स्थित हुआ भी वास्तव में उनसे अलग ही हूँ।।34।।
अन्वय व्यतिरेक दोनों हेतुओं से सिद्ध होता है कि भगवान सदा ही सर्वत्र व्याप्त हैं- और बस यह बात आत्मतत्त्व के जिज्ञासुओं को जानने योग्य है।। 35।।)
उक्त परमतत्त्व के उपदेष्टा श्रीमन्नारायण परात्पर परब्रह्म ही हैं, इसमें कोई विवाद नहीं। उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान का ही ब्रह्मा ने नारद को उपदेश किया। श्रीमन्नारायण ही ब्रह्म रूप में आविर्भूत हुए, उन्होंने ही ब्रह्मा को परमतत्त्व का उपदेश किया और उनकी प्रेरणा से ही ब्रह्मा ने नारद को श्रीमद्भागवत का उपेदश किया। इस तरह बह्मा के रूप में श्रीमन्नारायण ही इसके उपदेष्टा सिद्ध हुए। इसी तरह भगवान के द्वारा उपदिष्ट और प्रेरित भगवत्स्वरूप नारद ने व्यास को श्रीमद्भगवान् की प्रेरणा से शुक को भागवात का उपदेश किया। श्रीशुक ने राजा परीक्षित को उपदेश किया। अरे भाई! कोई भी करे अंत में प्रेरक श्रीभगवान् ही हैं-'उर प्रेरक रद्युवंशविभूषण'।
अंततोगत्वा सर्वान्तर्यामी सर्वद्रष्टा भगवान हो श्रीमद्भागवत हैं और भगवान ही श्रीमद्भागवत के बतलाने वाले तत्तत् आचार्य हैं। विशेष करके परमहंस श्रीशुकदेव जी महाराज इस सब में बहुत प्रमुख हैं, क्योंकि वे आप्तकाम पूर्णकाम, आत्माराम, परमनिष्काम हैं। भगवान परात्पर परब्रह्म तो अनन्त ब्रह्माण्ड के उत्पादन, पालन और संहरणादि में लगे हैं। ब्रह्मा, विष्णु प्रपंञ्च की सृष्टि और रक्षा में लगे हैं। नारद भगवद्गुणगान में लगे हुए हैं। लेकिन आत्मकाम, पूर्णकाम, आत्माराम परमनिष्काम जिनको कहना चाहिए वे शुकदेव जी हैं।
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