भागवत सुधा -करपात्री महाराज
एतावता वेद भगवान का ही स्वरूप है।
वेदप्रणिहितो धर्माह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम।।[1]
जो वेद विहित है, वही धर्म है। जो उसके विपरीत है, वही अधर्म है।[2]स्वयं ही प्रकट हुआ वेद साक्षात नारायण ही है, ऐसा हमने सुना है।)
एक ही परमात्मा अज्ञानियों को प्रबोधित करने के लिए प्रकाश्य-प्रकाशक दो बन गये। प्रकाशक वेद बन गये और प्रकाश्य रूप में भी स्वयं ही बने रहें। इस तरह से भगवान के प्रकाशक स्वयं भगवान ही। स्वयं से भिन्न भगवान का प्रकाशक होगा तब तो स्वप्रकाशता भंग हो जायगी। परन्तु जब वे ही दोनों रूपों में हैं तब स्वप्रकाशता भंग कैसे होगी?
भागवत क्या है? वेदों का सार, अतः वेद-सार श्रीमद्भागवत के रूप में भी भगवान् ने ही स्वयं को व्यक्त किया है। श्रीमद्भागवत है भगवान का प्रकाशक। इस तरह अनन्त ब्रह्माण्डनायक सर्वान्तरात्मा भगवान परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण का जिसके द्वारा प्रकाश होता है, वही है श्रीमद्भागवत। इसलिए स्वयं ही परात्पर परब्रह्म प्रभु श्रीमद्भागवत और इसके प्रवक्ता हैं, कोई दूसरे नहीं। पहले पहल स्वयं श्रीमन्नारायण ने ब्रह्मा को उपदेश किया। ब्रह्मा जी पहले उत्पन्न हुए। उनको प्रपंचनिर्माण का कुछ ज्ञान-विज्ञान नहीं था। फिर उनको ‘तप’ यह यह दो अक्षर का बोध हुआ। तप करने लगे, तब उनको भगवान का दर्शन हुआ-
स आदिदेवो जगतां परो गुरुः स्वधिष्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत।
तां नाध्यगच्छद् दृशमत्र सम्मतां प्रपंचनिर्माण विधिर्यथा भवेत्।।
स चिन्तयन् द्वयक्षरमेकदाम्भस्युपाश्रृणोद् द्विर्गदितं वचो विभुः।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं-निष्किंचनानां नृप यद् धनं विदुः।।
निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः।।
स्वाधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः।।
दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः।
अतप्यत स्माखिललोकतापनं तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः।।
तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः संदर्शयामास परं न यत्परम्।
व्यपेतसंक्लेशविमोहसाध्वसं स्वदृष्टवद्भिर्विबुधैरभिष्टुतम्।।[3]
जगत के परमगुरु आदिदेव ब्रह्मा जी अपने उत्पत्ति-स्थान कमल पर बैठे हुए लोकरचना का विचार करने लगे, परन्तु जिससे प्रपंच रचना की विधि विदित हो, वह सम्यक् ज्ञान-दृष्टि उन्हें नहीं प्राप्त हुई। इस प्रकार सोचते-सोचते उन्होंने प्रलयकालीन जल में अकस्मात दो अक्षरों का एक शब्द दो बार सुना। उसका पहला अक्षर स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक के) में सोलहवाँ (‘त’) और दूसरा इक्कीसवाँ (‘प’) था। हे नृप! यह तप ही निष्किंचन योगियों का परम धन माना जाता है।।6।।
यह सुनते ही ब्रह्मा जी ने उस शब्द के उच्चारण करने वाले को देखने के लिए इधर-उधर देखा, किन्तु वहाँ इन्हें अपने सिवा और कोई दिखायी न दिया। तब यह समझकर कि मुझे तप का आदेश हुआ है, उन्होंने उसी में अपना हित जानकर कमल पर बैठे-बैठे तप करना आरम्भ किया।।7।।
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