भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपूर्ण स्वयंवर
श्रीकृष्ण सदा के अपने जनों के ही हैं। उनके भक्त कोई अनुरोध करें तो उसे पूर्व स्वीकृत ही मानना पड़ता है। यादव महारथियों को–श्री बलराम को भी इस प्रस्ताव ने प्रसन्न किया। राज्य तो क्रथ–कैशिक का ही रहना है। उनका यह सम्मान–दान–महाराज उग्रसेन की राजसभा में सभासदों में प्रमुख स्थान उन्हें इस अर्पण से स्वत: प्राप्त हो जाएगा। मगधराज के शिविर में राजाओं की गोष्ठी समाप्त ही होने वाली थी कि कैशिक पहुँच गए वहां। मार्ग में ही उन्हें देवराज इंद्र द्वारा भेजा दूत मिल गया था। उसने उनका कार्य सुगम कर दिया था। 'समस्त नरपति गण सावधानी से यह नवीन समाचार सुन लें। कैशिक ने पहुँचते ही घोषणा करके सबको चौंका दिया। नरेश वर्ग संतुष्ट विदा होने वाला था यह समझ कर कि स्वयम्वर सभा में श्रीकृष्ण नहीं आवेंगे। अब नवीन समाचार क्या? कहीं वे कन्या को ले तो नहीं गए?' 'आप सब जानते है कि श्री हरि अपने अग्रज और गरुड़ के साथ विदर्भ में अतिथि हुए हैं।' कैशिक ने सुनाया– 'उन्हें उत्तम पात्र जानकर मेरे भाई क्रथ ने अपना संपूर्ण राज्य उन्हें अर्पित कर दिया है।' सभी नरेशों की मुख श्री मलिन पड़ गई। श्रीकृष्ण स्वयम्वर सभा में न आवें, इसका जो एकमात्र कारण था–वह भी नहीं रहा। कुण्डिनपुर में आकर, वहीं के नरेश के सगे भाई का विरोध इस समय किया नहीं जा सकता था और वे अपना राज्य किसी को भी अर्पित करें–विरोध इसमें किस प्रकार कोई करेगा? मेरे भाई ने श्रीकृष्ण चंद्र के लिए अपना सिंहासन रिक्त कर दिया, किंतु तभी एक दिव्य प्राणी अदृश्य रहते बोले– जिस सिंहासन पर कोई भी बैठ चुका, वह उच्छिष्ट हो गया। उस पर देवदेवेश्वर, निखिल लोकाराध्य श्रीकृष्ण कैसे बैठेंगे? कैशिक की इस बात ने क्षण भर के लिए राजाओं को प्रसन्न ही किया, किंतु वे तो कहते जा रहे थे–वह दिव्य प्राणी एक ज्योतिर्मय रत्न सिंहासन अदृश्य रहते ही धीरे से धर गया। जाते–जाते उसने कहा–यह देवराज इंद्र ने भेजा है और समस्त राजाओं के लिए एक आदेश किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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