कृष्ण! तुम्हारे गुण चरितों की कहाँ कहीं कुछ मिति है।
किन्तु-बुद्धि की, मन की, कर की शक्ति सदा सीमित है।।
नन्हा मत्स्य अनन्त सिन्धु की सीमा क्या पायेगा।
किन्तु सिन्धु का अंक त्यागकर भला कहाँ जायेगा।।
मीन रहें मन-बुद्धि तुम्हारे चरित-गुणों के रस के।
इनका पार भला क्या पाना-ये वाणी के बस के?
रस सागर ब्रजराज-तनय तुम सदा सदा के जन के-
रहे, रहो प्रिय प्राण प्राण के-जन तब, तुम निज जन के।।
सानुकूल तुम रहो, शारदा सानुकूल कल्याणी।
सानुकूल गणनाथ सफल हो सांगपूर्ण यह वाणी।।
आओ! स्वयं आवरण तोड़ो, चरित कौमुदी छाये।
शब्द, वाक्य-रस रूप धरो-अन्तर उज्ज्वल हो जाये।।
मेरे श्याम! समग्र तुम्हीं-तुम क्रीडामय अविनाशी।
वाङ्मय मूर्ति तुम्हारी मंगल, मेरे घट-घट वासी।।