भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युद्ध ! युद्ध ! युद्ध !
मथुरा का कारागार–जरासन्ध कांप गया। उसने स्वयं अनेक नरेशों को अपने यहाँ बंदी बना रखा है। वह कारागार में होता। किसी पर उसे रोष नहीं था। जब वह अमित पराक्रम–अजेयप्राय हार गया, दूसरे उसके साथी नरेश तो उसकी अपेक्षा बहुत दुर्बल थे। वे यदि प्राण संकट में पड़कर भाग गए तो क्या अनुचित किया उन्होंने। वह उन सबको ले आया था। संकट में उन लोगों की सहायता करना उसका कर्तव्य था। उसके बल विक्रम पर भरोसा करके वे लोग आए थे, किंतु किसी की सहायता करने में वह कहाँ समर्थ था। उसके केश पकड़ कर धक्का देकर बलराम ने अत्यंत उपेक्षा–अपमानपूर्वक छोड़ दिया। छोड़ दिया–अन्यथा वे मार भी दे सकते थे। अब मगध जाकर वह क्या करेगा? कैसे मुख दिखावेगा नरेशों को। कैसे अपनी विधवा पुत्रियों के सम्मुख जाएगा। लोग क्या कहेंगे उसे। इस पराजय की लज्जा लेकर वह लौटे? नहीं लौटेगा। वह वन में जाकर तप करेगा। सुखा देगा अपनी अस्थियों को भी। तप सफल हुआ तो सचमुच त्रिभुवन में अजेय हो जाएगा। यदुवंशियों को तब मिटा ही देगा पृथ्वी से। तप न भी सफल हो, मृत्यु ही तो होगी। मृत के समान तो वह हो ही गया है। इस पराजय से क्या मृत्यु अधिक दुखद है? एकाकी, अत्यंत उदास, पैदल जरासन्ध लौटा था उस दिन रणभूमि से। मुकुट हीन, श्री हीन, खुले केश, सिर झुकाए चला जा रहा था वह। उसने वन में जाकर तप करने का निश्चय किया तो उसका सन्ताप घटा ही। जरासन्ध साथ आए राजा मार्ग में उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उनको यह आशा सर्वथा नहीं थी कि जरासन्ध विजय हो जाएगा। जब इतनी भारी सेना, इतने सहायक होने पर भी विजय नहीं हुई तो एकाकी मगधराज की विजय की आशा कहाँ। यह सम्भव है कि वह मार दिया जाए–इसका भी पता लगना चाहिए। अत: राजा लोग बहुत दूर नहीं गए थे। वे जितने निकट निरापद रह सकते थे, वहाँ तक लौट आए थे और साथ ही थे। उनके समान प्राण संकट से मगधराज भी भागेगा, यही सम्भावना अधिक थी, किंतु इस प्रकार रथहीन, पैदल, श्रीहीन लौटेगा तो किसी के मन में यह कल्पना नहीं थी। महाराजाधिराज रथारूढ़ हों। राजाओं में जरासन्ध के प्रति सहानुभूति जागी। वे आगे बढ़ आए। उन्होंने अपने रथों में से सर्वोत्तम रथ उसके लिए प्रस्तुत किया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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