भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धोबी मरा
श्रीबलराम या कृष्णचन्द्र किसी को मस्तक झुका देते थे। किसी की ओर मुस्कराकर देख लेते थे। किसी के उपहार को कर-स्पर्श से धन्य कर देते थे। गोपकुमार केवल देख रहे थे। किसी भी पदार्थ के प्रति उनमें से एक ने भी कुतुहल प्रदर्शित नहीं किया। सहसा सामने से महाराज कंस का वस्त्र रंगनेवाला आता दिखायी पड़ा। वह जाति से भले धोबी था; किन्तु राजकीय रंगकार था। उसके साथ उसके सेवक-अनुगत थे और उन लोगों ने स्वर्णयष्टियों पर धुले,रंगे रत्नजटित बहुत ही सुन्दर वस्त्र इस प्रकार उठा रखे थे कि उन वस्त्रों पर कोई सिकुड़न की रेखा न पड़ जाय। वह रंगकार धोबी विशालकाय था। बहुत चौड़ी छाती थी उसकी। गले में निष्कों का कण्ठा पहन रखा था। लहरदार सतरंगी पगड़ी बाँधी थी उसने और मूल्यवान कंचुक पहने था। काला रंग, भारी गलमुच्छे, बड़ी उमेठी मूंछे, मदिरापान से लाल-लाल नेत्र। वह ऐसा अकड़ता चल रहा था जैसे वही मथुरा-नरेश हो। उसके पीछे चलने वाले भी गर्व से ऐंठते ही आ रहे थे। ‘यह इतना अकड़ता कौन आ रहा है?’ गोपकुमारों ने एक बार परस्पर देखा- ‘वह ब्राह्मणों, यादव प्रमुखों, नगर के सम्पन्नतम श्रेणियों की भी उपेक्षा करता चला आ रहा है। किसी की ओर वह देखता तक नहीं। किसी के प्रति विनम्र नहीं। दूसरे लोग ही कुछ हटकर इन सबों को मार्ग दे रहे हैं।’ वह रजक रंगकार–उसे अपना गौरव–अपनी महत्ता दिखलाने का अवसर मिला है मथुरा के लोगों को। महाराज कल के महोत्सव में जिन वस्त्रों को धारण करेंगे, वे वस्त्र हैं उसके पास। मथुरा के सम्मानित नागरिकों को समूह देखकर उसकी अकड़ बढ़ गयी है। वह महाराज का कृपापात्र है–दूसरों की उपेक्षा क्यों ने करे। फिर इन वस्त्रों पर तो तनिक भी किसी का स्पर्श–कोई रेखा नहीं पड़नी चाहिये। अत: वह आज पूरे राजपथ पर अपना स्वत्व मानता है। दूसरों को चलना हो तो उसके दल से बचकर, हटकर, किनारे होकर निकल जायें। गोपकुमारों को रजक का यह गर्व बुरा लगा। वे क्या इस धोबी को मार्ग देने को विवश हैं? यही उनके परस्पर देखने का तात्पर्य था; किन्तु कन्हाई ही नहीं, दाऊ भी साथ हैं। वे जैसा करेंगे, करना तो वही पड़ेगा। उस रंगकार पर–उसके साथ के अनुगतों के करों में स्वर्णयष्टियों पर सम्हालकर लटकाये वस्त्रों पर दोनों भाइयों की दृष्टि भी पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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