भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु-दक्षिणा
राम! वत्स कृष्ण! महर्षि ने दोनों भाइयों को अंक में समेट लिया। उनका शरीर पुलकित है, कण्ठ भरा हुआ है–तुम दोनों ने इस अकिञ्चन ब्राह्मण को गुरु होने का गौरव दिया। तुम्हारी सेवा से हम परम संतुष्ट हैं। किसी तुच्छ सेवा का तो सौभाग्य मिले हमें। राम ने अतिशय आग्रह पूर्ण स्वर में कहा–हमें बहुत प्रसन्नता होगी कोई भी सेवा करके। ब्राह्मण सदा के परम संतोषी और उसमें भी महर्षि सान्दीपनि प्रसिद्ध वीतराग। अब तक कहाँ किसी लौटते शिक्षार्थी से उन्होंने कभी गुरु दक्षिणा माँगी है। अधिक आग्रह किया किसी ने तो शिथिल स्वर में कह दिया–दो पुष्प, थोड़े फल धर सकते हो। जिनके त्याग, तप और ज्ञान ने इन भगवान वासुदेव को उनका शिष्य बनने का प्रलुब्ध किया, उनके अनंतर में लौकिक सम्पदा की कामना कैसे स्थान पावे। लेकिन आज राम और कृष्ण आग्रह कर रहे हैं। इनके आग्रह को टाल देना सम्भव है? इन्हें मथुरा जाना है और बिना गुरु दक्षिणा दिए ये जाना नहीं चाहते–नहीं जाएंगे, तब? अच्छा! महर्षि ने मस्तक झुका कर दो क्षण सोचा। सबके श्रवण समुत्सुक हो उठे। लेकिन महर्षि ने कहा–मैं तुम्हारी गुरु माता से पूछता हूँ। उटज में गए महर्षि। द्वार पर खड़ी पत्नी पति का संकेत पाकर भीतर गई तो बोले–देवी! कुछ चाहिए तुम्हें? त्रिभुवन में ऐसा कुछ नहीं जिसे ये दोनों भाई न दे सकें। तुम संकोच त्याग कर कह दो। सरला ब्राह्मणी। वह इन दोनों भाइयों को प्राणों से अधिक चाहने लगी ये आए उसी दिन से। उनका वात्सल्य–लेकिन ये आज चले जाएंगे। वह रात्रि भर रोती रही हैं। अब उसके जीवन का कोई स्नेहाधार? एक ही पुत्र था और वह प्रभास में समुद्र ले गया। रोते–रोते कहा ब्राह्मणी ने–जब वही नहीं रहा, किसके लिए मैं कोई कामना करूँगी। महर्षि लौट आए उटज से बाहर। उन्होंने स्वस्थ स्वर में कहा-वत्स! तुम दोनों भाइयों के लिए कुछ अप्राप्य या अदेय नहीं है। मैं पत्नी के साथ प्रभास गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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