भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
यादवेन्द्र उग्रसेन
अपने मंच से महाराज उग्रसेन उठे। वे अत्यन्त गम्भीर मुद्रा में थे। यद्यपि अब भी सशस्त्र प्रहरी उनके मंच के समीप खड़े थे; किन्तु अब उन्होंने सम्मानपूर्वक मस्तक झुकाकर मार्ग दे दिया। अब तो परिस्थिति ही भिन्न हो गयी थी। शोक सन्तप्त रुदन करती, मस्तक-छाती पीटती महिलाओं को उग्रसेन जी ने मल्लभूमि में जाने दिया। वे स्वयं श्रीकृष्ण की ओर चले। उनको आते देखकर श्रीकृष्णचन्द्र आगे बढ़े। सम्मुख जाकर मस्तक झुकाया उन्होंने और मलिन मुख, अत्यन्त खिन्न स्वर में बोले– ‘मुझे बहुत दु:ख है। बहुत पश्चाताप है। मैंने बहुत-सी स्त्रियों को विधवा बना दिया; किन्तु दूसरा कोई विकल्प नहीं था। कंस का वध उचित था; वह धर्मद्रोही था।’ रंगशाला में बैठे सभी नागरिक श्रद्धावनत हो गये- ‘यह शील! इन्होंने नहीं कहा कि अपनी प्राणरक्षा के लिए मारना पड़ा मुझे। यह भी नहीं कहा गया कि कंस को मैं मार न देता तो वह आपके वध की आज्ञा दे चुका था। कोई बचाव, कोई तर्क नहीं दिया। केवल धर्मद्रोही था–धर्मरक्षा आवश्यक है, इसलिए कंस को मारना पड़ा।’ ‘मुझे इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना है।’ उग्रसेन ने कुछ काँपते स्वर में कहा– ‘मैं तुम्हें दोष नहीं देता। कोई भी तुम्हें दोष नहीं देगा।’ ‘कंस का राज्य, कोष, सेना अब तुम ग्रहण करो। कंस के वाहन, दास,दासियाँ– सब स्वीकार करो। प्रजा, मन्त्री, ब्राह्मण तुम्हारी स्तुति करेंगे।’ महाराज उग्रसेन रुदन दबाये बोल रहे थे– ‘अब विग्रह समाप्त हो गया। तुम्हारा यहाँ मथुरा पर अधिकार हो गया। हम सभी यादवों की अब एकमात्र गति तुम्हीं हो। कंस पापी सही पर वह मर गया। अनुमति दो कि इसका प्रेतकर्म हो। मैं पुत्रों की अन्त्येष्टि करके अपनी पत्नी तथा पुत्रवधुओं के साथ वन में चला जाऊँगा।’ ‘तात! आप समयोचित बात कह रहे हैं। जो हो चुका, वह वैसा ही होने वाला था। कंस अपने कर्मों से काल के द्वारा मारा गया। मैं निमित्त मात्र हूँ; किन्तु कंस के शरीर का राजोचित सत्कार होगा।’ श्रीकृष्णचन्द्र वैसे ही खिन्न, पर गम्भीर स्वर में बोल रहे थे– ‘मुझे न राज्य का लोभ है, न राज्य के लिए मैंने आपके पुत्र को मारा है। लोक-हित के लिए यह अप्रिय कर्म करना पड़ा मुझे।’ ‘आप मेरे पूज्य हैं। आप नीति की बात कह रहे हैं; किन्तु कृष्ण को नीति नहीं, आपका वात्सल्य अभीष्ट है।’ अब श्रीकृष्णचन्द्र और समीप आ गये– ‘आप जानते ही हैं कि महाराज ययाति के शाप से यदुकुल में अग्रज एवं उनकी सन्तान राज्य सिंहासन पर नहीं बैठ सकतीं। आप मुझसे रुष्ट हैं– मैं इसके योग्य हूँ। आप मुझे अपना स्नेह नहीं देंगे तो मथुरा आज ही त्याग दूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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