भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
फिर कारागार
‘उचित कारण दिया था उन्होंने।’ महर्षि वैसे ही शान्त स्वर में कह रहे थे– ‘उन्होंने कहा था कि मैंने एक ब्राह्मण को मुँहमांगी भिक्षा देने की प्रतिज्ञा कर ली है। उस विप्र ने अब तक बतलाया नहीं कि उसे क्या चाहिये। जब तब उसकी भिक्षा का ऋण न उतार लूँ, आपका बुढ़ापा नहीं ले सकता। पता नहीं, वह क्या माँगे और वृद्ध होकर मैं उसकी माँग पूरी कर पाऊँ या न कर पाऊँ।’ गर्गाचार्य जी राजसभा से यह कहकर चले गये। उन तेजोमय तपोधन को रोकने का साहस कंस में नहीं था, उनके अनुचर कैसे रोकते उन्हें। ‘वसुदेव ने मुझे धोखा दिया।’ कंस ने देखा कि उसकी प्रस्तावना ठीक नहीं रही तो अपने उद्देश्य पर आ गया– ‘उन्होंने अपने सत्य की रक्षा नहीं की। अपने पुत्र को छिपाकर गोकुल पहुँचा आये।’ देवर्षि नारद से सुना वर्णन उसने सुना दिया। ‘इसमें अनुचित क्या किया उन्होंने?’ उग्रसेन जी के बड़े भाई देवक जी तीखे स्वर में बोले– ‘अपने पुत्र की रक्षा का प्रयत्न करना भी क्या अधर्म है? तुमने उनके छ: पुत्र मार दिये। सातवां दैव ने नहीं होने दिया। अब एक को किसी प्रकार उन्होंने बचा लिया तो वे प्रशंसा के पात्र हैं। ‘वसुदेवजी ने सत्य की कोई उपेक्षा नहीं की।’ कंस को अन्धक जी ने डाँटा– ‘उन्होंने वचन दिया था तुम्हें कि देवकी के पुत्रों को वे तुम्हें दे जाया करेंगे। मथुरा के सब नागरिक जानते हैं कि वसुदेव ने अपने वचन का पालन किया था। वे अपना पहला पुत्र जन्मते ही तुम्हारे पास ले आये थे। ‘यह तो मुझे विश्वास दिलाने के लिए था।’ कंस का स्वर बहुत तीक्ष्ण था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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