भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंसारि
कंस ने कुढ़कर संकेत किया कि वाद्य बन्द कर दिये जायें। उसके मल्ल-मारू ध्वनि में बजते वाद्य बन्द हो गये; किन्तु उसी क्षण गगन देव-वाद्यों की ध्वनि से गूँजने लगा। ‘कंस का तो कोई अब लड़ने नहीं आता।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने देखा कुछ क्षण और बढ़कर सखाओं में से भद्र को हाथ पकड़कर खींचने लगे। ‘मैं नहीं लड़ता।’ भद्र ने मना किया। उसे लगता है कि ‘कन्हाई बहुत थक गया है। अब इसे विश्राम करना चाहिये।’ ‘मैं पटकूँगा आज तुझे।’ श्रीकृष्ण तो लिपट गये हैं भद्र से। उनकी ठीक जोड़ी श्रीदामा है; किन्तु नहीं, आज श्रीदामा से लड़कर यहाँ लज्जित नहीं होना। वह पटकेगा–वह तो पटक ही लेगा। भद्र है कि कुछ संकोच करेगा। ‘तूने राक्षस क्या मार दिये–बड़ा वीर बन गया!’ भद्र झुंझलाकर अखाड़े में उतर आया। दाऊ दादा ने वरूथप को खींच लिया। वरूथप ही थोड़ी देर में उनसे बल लगा पाता है। शेष बालक दर्शक क्यों बने रहें। सब उतर पड़े हैं अखाड़े में। सबने जोड़ियाँ बना ली हैं। बालकों की मल्लक्रीड़ा–मंजु मल्लक्रीड़ा चलने लगी है। उनके नुपूर बज रहे हैं। उत्साहित करने के स्वर में झमाझम देववाद्य बज रहे हैं और बालक कूदते हैं, किलकते हैं, परस्पर बल लगाते हैं। उच्च स्वर से बोलते हैं– ‘अब पटकता हूँ तुझे।’ ‘साधु साधु!’ नागरिक प्रसन्न हो गये हैं। गोप अब बालकों का नाम ले लेकर उन्हें उत्साहित करने लगे हैं। वास्तविक मल्लक्रीड़ा तो अब प्रारम्भ हुई। ‘जय हो! जय हो!’ कभी गगन गूँजता है, कभी मल्लशाला की दर्शक-दीर्घा से जयनाद उठता है। ‘बन्द करो वाद्य!’ कंस उठ खड़ा हुआ मंच पर और क्रोध से चिल्लाया। उसे स्मरण ही नहीं कि उसके वाद्य कब के बन्द हो चुके। ये देववाद्य उसकी आज्ञा में नहीं हैं। लेकिन आतंक मानते हैं उसका सुर भी। देववाद्य बन्द हो गये। इस कर्कश चीत्कार से चौंककर बालकों ने एक-दूसरे को छोड़ा और घूमकर कंस की ओर देखने लगे। ‘सब लोग सामने ही उसके शत्रु की प्रशंसा कर रहे हैं! ऐसे शत्रु की जिसने उसके पाँच-पाँच मल्ल मार दिये हैं।’ कंस के नेत्र अंगारों के समान जल रहे हैं। असह्य है उसे यह प्रशंसा। यह जयनाद वह नहीं सह सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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