भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
फिर आये देवर्षि
‘वसुदेव ने धोखा दिया मुझे।’ कंस के हाथ से तलवार छूट गिरी। वह वहीं सिर पकड़कर धम से बैठ गया। उसे पता ही नहीं लगा कि देवर्षि कब ‘नारायण हरि’ कहकर अदृश्य हो गये। कंस यह जानता था–समझ चुका था कि व्रजपति को पुत्र ही उसका शत्रु है। कंस इधर से असावधान नहीं था; किन्तु वह वसुदेव को पुत्र है, इस रहस्योदघाटन से उसे भारी धक्का लगा। ‘मैं व्यर्थ ही उस गगन में गयी देवी से डरकर वसुदेव का सत्कार करता रहा।’ कंस ने मुट्ठियां भींच लीं। उसे आज सब पर–अपने पर भी क्रोध आ रहा था। वह जब उस राजोद्यान से उठा–इतना भयानक उसका मुख हो गया था कि उसके सेवक तक सहमकर इधर-उधर दुबकने लग गये। सीधे कंस अपने राजसदन के एकान्त कक्ष में चला गया। इस समय उसे सोचने के लिए समय चाहिये। उतावली में अब कुछ करना अनर्थकारी हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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