भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
देवर्षि आये
‘श्रीमन्नारायण नारायण नारायण ।’ वातावरण देवर्षि की वीणा-झंकार और भगवन्नाम-ध्वनि से गूँज उठा। देवर्षि नारद के लिए सुर-असुर सबका भवन सदा स्वागत को प्रस्तुत रहता है। सच्चे अर्थ में देवर्षि अजातशत्रु हैं। वे कब कहाँ पहुँच जायेंगे और क्या करेंगे, कोई अनुमान नहीं कर सकता। देवर्षि श्रीहरि के मूर्तिमान मन हैं। अत: जो भगवदेच्छा, वह नारद जी का कर्म। अकस्मात एक अद्भुत ज्योति और दिव्यगन्ध से कंस का कक्ष भर उठा। कंस उठे, इतने में तो वीणा लिये, खड़ाऊँ पहिने देवर्षि सम्मुख आ खड़े हुए। कंस ने अञ्जलि बांधकर प्रणिपात किया। ‘रुको! पहिले मेरी बात सुन लो।’ कंस पूजा की सामग्री मँगाने जा जा रहा था, परन्तु देवर्षि ने उसे यह सौभाग्य नहीं दिया- ‘तुम पर स्नेह होने के कारण मैं यहाँ आ गया हूँ, अन्यथा तुम जानते हो कि मैं सदा शीघ्रता में रहता हूँ।’ कंस हाथ जोड़े सम्मुख खड़ा रहा। देवर्षि कहते गये- ‘आश्चर्य है कि महासुर कालनेमि अपने को भी भूल गये हैं।’ कंस को उसकी जन्म-कथा सुनाकर देवर्षि ने यह तो बतला ही दिया- ‘वह द्रुमिल दानव द्वारा उत्पन्न है और कालनेमि है।’ साथ ही यह भी बतलाया- देवताओं ने सुमेरु पर्वत पर तुम्हारे वध के सम्बन्ध में मन्त्रणा की है। मैं उस समय वहीं था। श्रीनारायण ने देवताओं की सहायता करना स्वीकार कर लिया है। देवताओं में अधिकांश अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म ले चुके हैं। जो शेष हैं, वे क्रमश: जन्म लेने वाले हैं।’ ‘तुम्हारे पिता-जिनको तुम पिता मानते हो केवल क्षेत्रज पुत्र होने के कारण, वे उग्रसेन प्रजापति के अंश हैं। उनके भाई देवक के रूप में गन्धर्वराज आये हैं। वसुदेव कश्यप है और अदिति हैं देवकी।’ नारद जी ने संक्षिप्त ढंग से कह दिया- ‘तुम्हारे यहाँ अधिकांश युदवंशी देवांश से उत्पन्न हुए हैं। इनकी पत्नियाँ भी देवांगनायें हैं। यही अवस्था नन्द गोकुल की- पूरे व्रजमण्डल की और हस्तिनापुर की भी है।’ ‘पृथ्वी पर इस समय दो प्रकार के ही राजपुरुष प्राय: हैं। एक देवांश से उत्पन्न और दूसरे असुरांश से उत्पन्न। जरासन्धादि तुम्हारे मित्र असुर हैं जो देवासुर-संग्राम में मारे गये थे और अब पृथ्वी पर मनुष्य-रुप में जन्म ग्रहण करके तुम्हारे सहायक हो गये हैं।’ कंस मुस्काराया। यह देखकर देवर्षि ने कहा- ‘मैं जानता हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो। तुम यही तो सोच रहे हो कि नारद कुछ अधिक बुद्धिमान नहीं है। केवल झगड़ा लगाना इन्हें आता है। युद्ध में साक्षात देवता उपस्थित थे और तब भी पराजित हो गये तो अव पृथ्वी पर अंश रूप से जन्म लेकर तुम्हारा क्या बिगाड़ लेंगे?’ ‘तुम नीतिज्ञ हो!’ देवर्षि ने प्रशंसा की कंस की- ‘अत: जानते हो कि शत्रु कितना भी छोटा हो, उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। देवता इस बार तुम्हारे ही स्वजन-परिजन बनकर प्रकट हुए हैं।’ ‘आप ठीक कहते हैं।’ कंस ने कहा- ‘मैंने अमरावती पर चढ़ायी की है, यह समाचार मिलते ही महाराज ने मुझे लौटने की आज्ञा भेज दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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