भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
पूतना गयी
पूतना को पूर्व स्मृति ज्यों की त्यों थी। बलि के यज्ञ में भगवान वामन पधारे। छोटे-छोटे कर-चरण, छोटा-सा आकार–इस पुत्रहीना में वात्सल्य उमड़ पड़ा– ‘यह बालक तो गोद में लेकर स्तनपान कराने योग्य है।’ स्तनों में–सदा के सूखे इसके स्तनों में उस दिन दूध उतर आया था। भगवान वामन ने तीन पद पृथ्वी-दान का संकल्प लिया और विराट बन गये। बलि का सम्पूर्ण राज्य, स्वर्ग तक सब नाप लिया और बलि को बांध दिया। तब बलि की कन्या के अधर फड़क उठे थे। पूतना अब भी क्रोध से ओष्ठ काटकर कहती है– ‘वह दूध पिलाने योग्य था? वह मिल जाय तो मैं उसे घोर हलाहल पिला दूँ।’ उस नित्य से लगकर तो कोई किसी का संकल्प असत्य-अपूर्ण रहता नहीं उसे पूतना का पय-पान करना ही था, भले पूतना घोर विष ही पिलाने पहुँचे उस तक। बड़ा भयानक मुख था पूतना का। भारी गोल मुख पर बड़ी-बड़ी गोल-गोल पीली, बाहर को निकली-सी पड़ती आंखें बहुत डरावनी थीं। वह आकृति से उलूकी थी। अत्यन्त बेधक, प्राणहारी दृष्टि थी उसकी और निशाचरी तो वह थी ही। रात्रि में उस गगनचरी को कुछ भी देखने, कहीं भी जाने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। कोटरा के दो पुत्र भी थे इस पूतना के अतिरिक्त–बक और अघ। बक रहता था भारी बगुले के रूप में और अघ को अजगर बनकर पड़े रहना प्रिय था। वैसे ये तीनों कामरूप थे। जब जैसा चाहते, रूप बना लेते थे। पूतना अपने दोनों छोटे भाइयों के साथ कंस के यहाँ आयी तो कंस ने बहुत सम्मानपूर्वक रखा था इनको। पूतना अपनी आकृति से उलूकी थी; किन्तु वेश और स्वभाव से बकी थी। वह बहुत उज्वल वस्त्र पहनती थी। पुत्रवती स्त्रियों से हिलमिल जाना, शिशुओं के प्रति वात्सल्य प्रदर्शित करना, माताओं को प्रेम से झिड़क देना कि उन्हें बालक को रखना-पालना भी नहीं आता; यह सब पूतना को बहुत आता था। वात्सल्यमयी माता का अभिनय करने में वह दक्ष थी; किन्तु इस सबका उसका अभिप्राय सदा बहुत निर्दय रहता था। वह शिशु-घातिनी थी-अबोध शिशु-घातिनी थी। अबोध शिशुओं का रक्त ही उसका आहार था।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘पूतना लोकबालध्नी राक्षसी रुधिराशना।’ ------ श्रीमदभागवत 10–6–35
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