भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
केशी गया
केशी ने अरण्यवासी, पर्वतीय लोगों में बहुतों को खा लिया था। वह आहार लेने–उत्पात करने भी दूर-दूर तक निकल जाता था; किन्तु रहता मथुरा के समीप के कानन में ही था। आज अकस्मात् कंस का सन्देश पाकर वह दौड़ता आया था। राजसभा में उसे आने पर कौन रोकता। वह दौड़ता हुआ सीधे सिंहासन के सम्मुख आकर ऐसे खड़ा हो गया, जैसे कंस उस पर सवारी करके अभी ही कहीं यात्रा करने वाला हो। ‘तुम आ गये।’ कंस ने उठकर उसे थपकी दी– ‘मित्र! मैंने इतने दिनों पर–जब से तुम मथुरा आये हो, उसके पश्चात आज तुम्हारा स्मरण कठिनाई में किया है। तुम पर ही मैं भरोसा कर सकता हूँ।’ ‘उच्च स्वर से केशी हिनहिनाया।’ फिर उसने स्पष्ट वाणी में कहा– ‘महाराज! आज्ञा दें। आपकी सेवा का सुअवसर मिले, यह मेरा सौभाग्य होगा।’ ‘केशी! तुम अद्वितीय शूर हो।’ कंस ने उसके शरीर पर हाथ फेरते हुए प्रशंसा की उसकी– ‘तुम प्रस्थान करो कल प्रात: और नन्दव्रज चले जाओ। वहाँ दो कुमार हैं-गौर तथा श्याम। उन दोनों को न भी मार सको तो उनमें से श्याम को अवश्य मार दो।’ ‘मैं दोनों को मार दूँगा।’ केशी बहुत जोर से हिनहिनाया– ‘मैंने बहुत सुना है उन दोनों के विषय में। नन्दव्रज के बहुत गोप आज मेरे आहार बनेंगे।’ ‘तुम और चाहे जिसे भक्षण कर लेना; किन्तु पहले उस कृष्ण को।’ कंस ने केशी से अनुरोध किया– ‘और सावधान रहना–वह बहुत ……।’ ‘उहँ, आप भी एक बालक का वर्णन करके मुझे डराना चाहते हैं।’ केशी चिंग्घाड़कर मुड़ पड़ा और दौड़ता हुआ निकल गया राजसभा से। ‘लगता है, यह भी अपनी मूर्खता से मारा ही जायेगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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