भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस आतंकग्रस्त
‘महाराज!’ परिचारिका प्राय: दौड़ती हुई कारागार से आयी थी। उसने कारागार-रक्षक को न साथ लिया, न उससे कुछ कहा। उसे यह कुछ करना नहीं सूझा था। वह सीधे कंस के सम्मुख पहुँची थी। ‘क्या हुआ?’ कंस भी हड़बड़ा उठा था– ‘वसुदेव निकल गये कारागार से?’ ‘वसुदेव वहीं हैं महाराज! लेकिन देवकी…..’ सेविका ठीक बोल नहीं पा रही थी। ‘देवकी को क्या हुआ?’ उसे तो अभी सन्तान होने वाली नहीं थी?’ कंस ने फिर पूछा– ‘वसुदेव वहीं हैं तब देवकी को उन्होंने कहीं भेज दिया?’ ‘नहीं महाराज!’ परिचारिका हांफ रही थी दौड़ने के कारण–देवकी वहीं हैं, पर देवकी…..’ ‘क्या हुआ देवकी को?’ वह वहीं है, वसुदेव वहीं हैं तो देवकी को हुआ क्या?’ अब कंस का स्वर कड़ा हुआ– ‘तू स्पष्ट क्यों नहीं कहती?’ ‘देवकी वह नहीं है।’ परिचारिका ने कठिनाई से कहा– ‘वहाँ तो कोई दूसरी ही देवकी बैठी है।’ ‘वसुदेव वे नहीं रहे और अब देवकी भी दूसरी हो गयी?’ कंस के स्वर में चिन्ता थी। ‘वसुदेव तो वही हैं।’ वह सेविका कह गयी– ‘कोई भूत उनमें आ घुसा था। वह उनको छोड़कर देवकी में……..’ ‘वसुदेव पहले जैसे हो गये?’ कंस प्रसन्नता से मानो उछल पड़ा हो। ‘हां महाराज! लेकिन देवकी की ओर तो मैं देख नहीं सकी।’ सेविका को वसुदेव की उतनी चिन्ता नहीं थी। ‘तुममें से अब किसी को वहाँ नहीं जाना है।’ कंस ने निर्णय सुना दिया– ‘वहाँ अब कोई गूँगी-बहरी परिचारिका जायगी।’ निर्णय ठीक ही था। जब किसी को कारागार में रखना है तो उसके आहार की व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी; किन्तु कोई गूंगी रहेगी तो उसे देवकी से बोल न पाने का प्रश्न तंग नहीं करेगा और वह बधिरा जब सुनेगी ही नहीं तो उसे कोई आदेश भी क्या देगा। ‘देवकी अन्तर्वत्नी हो गयी।’ कंस ने परिचारिका से मिले सम्वाद का अर्थ किया– ‘वह मेरा मारने वाला हरि अब देवकी के भीतर आ गया।’ कंस को देवकी से उतना भय नहीं लगा, जितना वह वसुदेव जी से डर गया था। कुछ भी हो, देवकी दुर्बल नारी है। वह अकेली कहीं नहीं जा सकती। वह किसी को भला आदेश भी क्या देगी। लेकिन कंस उसी समय देवकी को देखने कारागार चल पड़ा। वहाँ सचमुच उसे देवकी का जो स्वरुप दीखा, वह अकल्पनीय था। जैसे कोई दिव्यलोक की देवी धरा पर उतर आयी हो। कंस को देखकर देवी देवकी पहले की भाँति कातर नहीं हुईं; किन्तु उनके मुख पर किंचित सहम जाने का जो भाव आया, उसे कंस ने लक्षित कर लिया। ‘मेरा निश्चय ही ठीक था।’ कंस ने सोचा– ‘हरि इसके भीतर आ गया। अन्यथा यह पहले तो कभी ऐसी थी नहीं। यह तो ऐसी हो रही है जैसे मेघों से ढका सूर्य हो। तब?’ एक बार कंस का हाथ अपने कटि में झूलते लम्बे खड्ग की मूठ पर चला गया– ‘इसे अभी ही समाप्त कर दूँ तब? ’लेकिन देवकी की ओर दृष्टि गयी और कंस का हाथ मूठ पर से हट गया। वह कुछ भी करता, वहाँ कौन उसे रोकने वाला था। वसुदेव जी हाथ भी पकड़ने में आज समर्थ नहीं थे, जैसे एक दिन उन्होंने कंस का हाथ पकड़ लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज