भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
महाराज कंस
कोई मुहूर्त नहीं देखा गया। किसी अभिषेक की आवश्यकता नहीं हुई। महाराज उग्रसेन को बन्दी बनाकर कंस स्वयं महाराज हो गया। रात्रि में ही उसके मन्त्री, अनुचर उसे महाराज कहने लगे थे। प्रात:काल वह महाराज उग्रसेन का फेंका हुआ मुकुट मस्तक पर रखकर, राजदण्ड हाथ में लेकर जब सिंहासन पर आ बैठा तो किसमें साहस था कि उसे मथुरानरेश न मानता। मथुरा का शासन वैसे भी कंस के ही हाथ में था। महाराज उग्रसेन सिंहासन पर थे तब भी प्राय: सब राजकार्य कंस ही देखता था। अत: कंस को कोई भी कठिनाई नहीं हुई। प्रशासन में उसे कोई बड़ा परिवर्तन भी नहीं करना पड़ा। ‘जो लोग सिंहासन सम्मान करते रहेंगे, उनकी रक्षा की जायेगी। प्रशासन उनकी सुख-सुविधा की पूरी व्यवस्था करेगा।’ कंस की पहली राजाज्ञा घोषित हुई– ‘राजभक्त प्रजा को तंग करने वालों एवं आतंकित करने वालों को कठोर दण्ड दिया जायेगा।’ ‘मधु और शूरसेन वंश के लोग राजद्रोही हैं।’ कंस ने दूसरी आज्ञा दी- ‘इनकी समस्त सम्पत्ति राजकोष में ले ली जाय। वैसे भी इनकी कोई स्वोपार्जित सम्पत्ति नहीं है। राज्य की सम्पत्ति को ही इन दोनों कुलों ने दबा रखा है।’ वसुदेव जी तथा उनके सभी भाइयों की चल-सम्पत्ति, पशु-धन कंस ने उसी दिन छीन लिया। अवश्य उनके भवन उसने नहीं छीने। वे उनके अधिकार में ही रहे। मथुरा से पिछली रात्रि के युद्ध के पश्चात बहुत बड़ी संख्या में लोग भाग गये थे। जिन यादव-शूरों ने कंस से युद्ध किया था, उनके स्वजन-सम्बन्धी सब रात्रि में ही नगर छोड़कर चले गये थे। वे अपने परिवार को साथ ले गये थे। वसुदेव जी के भाई और परिवारों में कोई प्रात: मथुरा में नहीं रह गया था। केवल वसुदेव जी की पत्नियाँ एवं निजी सेवक रह गये थे। दिन में जब वसुदेव जी की पत्नियाँ कारागार में देवकी के समीप गयीं, वसुदेव जी ने सबको कह दिया– ‘मथुरा में रहना निरापद नहीं है। अब सबको मथुरा छोड़कर अपने पितृ-गृह या अन्यत्र कहीं सुरक्षित स्थानों में जाकर रहना चाहिये। विपत्ति के दिन भी बीतेंगे; किन्तु इस समय तो सबको प्रतीक्षा करना है।’ पितृ-गृह उनमें से कोई नहीं गयी। अकारण कंस का कोप पितृ-गृह को क्यों भोगना पड़े। कंस की सभी बहिनें भी जब मथुरा छोड़ गयीं तो चचेरी बहिनें कैसे उससे सहानुभूति की आशा कर सकती थीं। विपत्ति में वे वसुदेव जी को छोड़ना नहीं चाहती थीं किन्तु समस्त-सम्पत्ति कंस के सेवक सवेरे ही उठा ले गये थे। मथुरा रहने से वसुदेव जी की चिन्ता ही बढ़ती थी। अत: सबने मथुरा-त्याग का ही निर्णय किया। ‘मैं कहीं नहीं जाऊँगी।’ रोहिणी जी ने वसुदेव जी से स्पष्ट कह दिया– ‘आप और देवकी यहाँ कारागार में हैं। कोई तो आपकी खोज-खबर लेने को चाहिये। सेवक कोई आप तक आ नहीं सकता। सेविकायें भी वे आवेंगी जो कंस द्वारा भेजी जायँगी। अत: मैं यहीं कहूँगी। कंस मुझे मार दे या यहीं बन्द कर दे, मैं नहीं जाने की। ‘तुम रहोगी कहाँ?’ वसुदेव जी ने अत्यन्त व्यथित स्वर में पूछा। जब उनके गृह की सम्पत्ति राजकोष में चली गयी तो उस सूने घर में कोई अकेली नारी कैसे रहेगी? उसके समीप कोई सेविका भी किस आधार पर रहेगी? ‘क्यों, पिता जी तो हैं।’ रोहिणी जी ने बिना हिचक उत्तर दिया– उनके सदन में क्या उनकी एक पुत्रवधू को स्थान नहीं है?’ ‘तुम ठीक कहती हो!’ वसुदेव जी ने सम्मति दे दी– ‘पिता जी केवल तुम्हारी सेवा स्वीकार करते हैं और इस समय उनकी देखरेख भी आवश्यक है। कंस का क्या ठिकाना।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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