भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
महाराज उग्रसेन भी बन्दी बने
‘कारागार!’ कंस ने सारथि को आदेश दिया और उसी दिन सूर्यास्त से पूर्व ही वे भुवनवन्द्य दम्पत्ति मथुरा के कारागार में पहुँचा दिये गये। सद्य:प्रसूता, मूर्च्छिता, रक्ताअंगा माता देवकी असहायावस्था में उस कारागार के कक्ष में पहुँचायी गयीं– वसुदेव जी ने उन्हें अंक में उठाकर पहुँचाया। तब भी वे मूर्च्छिता ही थीं; किन्तु कंस को अब देवकी जी के जीवन की कहाँ चिन्ता थी। ‘तुम यदि यहाँ शान्त रहें’– कंस अब वसुदेव जी को ‘आप’ कहने की शिष्टता भूल चुका था, उसने कहा– ‘तो तुम्हें कोई कष्ट नहीं दिया जायगा। अभी यहाँ राजपुरुष और सेविकायें आवेंगी। वे तुम्हारे लिए सब आवश्यक प्रबन्धक कर देंगी। आवश्यक सामग्री यहाँ आ जायेगी। तुम्हारी पत्नियाँ यहाँ तुमसे मिलने आ सकेंगी; किन्तु केवल तुम्हारी पत्नियाँ।’ ‘युवराज!’ वसुदेव जी ने कठिनाई से अपने को कुछ कहने को प्रस्तुत किया। ‘नहीं’ कंस ने कुछ कहने नहीं दिया– ‘इस समय तुम्हारी और कोई बात नहीं सुननी है। तुम जानते हो कि नगर में तुम्हारे बहुत सहायक हैं। मुझे देखना है कि वे कोई उत्पात न करें। तुम शान्त बने रहे तो तुम्हारी प्रार्थना भी सुन लूँगा पीछे।’ कंस तत्काल लौट गया। कारागार का कठोर द्वार बन्द हो गया। वसुदेव जी मूर्च्छिता देवकी के समीप मस्तक पर दोनों हाथ रखकर भूमि पर– उस धूलिभरे कक्ष की भूमि पर, जिस पर त्रिभुवनेश्वर की भावी जननी उनकी सहधर्मिणी अचेत पड़ी थीं– धम्म से बैठ गये। ‘कंस ने वसुदेव जी के शिशु का वध कर दिया।’ सूखे मूँजवन में लगी दावाग्नि के समान यह समाचार मथुरा में शीघ्र फैल गया– ‘वसुदेव और देवकी को उसने कारागार में बन्द कर दिया है।’ ‘कंस को बन्दी बनाओ!’ महाराज उग्रसेन ने सुना तो क्रोध से कांपते हुए आज्ञा दी– ‘यादव राजसभा उसका न्याय करेगी।’ जब से कंस ने देवकी पर हाथ उठाया था– महाराज ने उसी दिन से उससे बोलना बन्द कर दिया था। कंस ने भी पिता की उपेक्षा कर दी थी। वह महीनों से उनके सम्मुख नहीं आया था। यादवगण अत्यन्त उत्तेजना में थे। प्राय: युवकों और तरुणों ने शस्त्र उठा लिये थे। महाराज उग्रसेन के समीप उनके समूह एकत्र हो रहे थे। यह सब समझ रहे थे कि कंस राजाज्ञा मात्र से बन्दी नहीं बनाया जा सकता। सेना पर उसका पूरा प्रभुत्व था। कंस प्रमत्त नहीं था। कारागार से निकलते ही उसने जो सैनिक टुकड़ी वसुदेव जी के भवन पर बुलायी थी, उसके थोड़े-से सैनिक भवन पर छोड़कर शेष को उसने कारागार की रक्षा के लिए भेजा। ‘केवल मेरा आज्ञापत्र लेकर ही कोई कारागार में प्रवेश कर सकता है।’ सैनिकों को उसने कठोर स्वर में समझा दिया– ‘दूसरे किसी की आज्ञा तुम्हें नहीं सुननी है।’ ‘आपको बन्दी बनाने की आज्ञा महाराज ने दी है।’ मार्ग में अश्व दौड़ाकर आता कंस का एक अंगरक्षक मिला। उसने समाचार दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज