भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
योगमाया
‘क्यों ले आया मैं इसे?’ वसुदेव जी भी चौंके। वे वहाँ गोकुल से नन्दराय की सन्तान लाने तो गये नहीं थे। पता भी नहीं था कि यशोदा जी को सन्तान होने वाली है। वहाँ जाकर यह क्या किया उन्होंने? यह कैसे हो गया उनसे? ‘कंस को कह दें?’ कहा किसी ने नहीं; किन्तु दोनों के हृदय में यह बात आयी। दोनों को एक ही उत्तर सूझा– ‘कंस विश्वास करेगा इस पर?’ कोई भी कैसे विश्वास करेगा कि हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े वसुदेव जी कारागार के बन्द द्वार से निकलकर इस बढ़ी यमुना में से गोकुल गये और सकुशल लौट आये। यह चर्चा तो उठाना ही व्यर्थ था। वसुदेव जी ने दोनों हाथ मस्तक पर धर लिये। उनसे जो कुछ हो गया था, उसे अन्यथा करने का कोई उपाय नहीं था और उन्हें ऐसी ग्लानि हो रही थी कि उस अन्धकार में भी वे पत्नी की ओर देखने का साहस अपने में नहीं पाते थे। ‘कैसे बचाऊँ मैं?’ माता व्याकुल हो रही थीं और वह थी कि रोये चली जा रही थी। वह जो त्रिभुवन को रुला सकती है–उसने कभी रोना कहाँ सीखा था। उसे आगे भी कहाँ कभी रोना था। रुदन का यही तो एक अवसर आया था–वह मानों सब कसर इसी समय निकाल लेना चाहती थी। यह योगमाया–उसका रुदन कहाँ व्यर्थ जाने वाला था। अनेक काम एक साथ हो गये उस रुदन से। वायु के पद शिथिल हो गये। झंझावात रुक गया–मानो वायुदेव सहम गये। सहमकर भागे गगन से मेघ–आकाश स्वच्छ होने लगा। वर्षा रुक गयी। मथुरा के भवनों में–गोकुल में भी उसी समय प्राय: सबकी निद्रा टूट गयी। ‘देवकी के शिशु हुआ।’ कारागार के रक्षक जागे। शिशु की रुदन-ध्वनि सुनायी पड़ी और हड़बड़ी में भागे उनमें से कई एकसाथ राजभवन की ओर। इतना सब करके वह बालिका चुप हो गयी। वह माता की छाती से चिपटकर उनका स्तनपान करने लगी। ऐसी चुप हुई जैसे उसे रोना आता ही नहीं। यह अमृतपथ उसे फिर तो मिलना नहीं है, अत: भरपेट इसे पी लेने में जुट गयी वह। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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