भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
निर्मम हत्यायें
‘देवि! मैं न पति होने योग्य हूँ और न पिता होने योग्य!’ वसुदेव जी ने अत्यन्त व्यथित स्वर में एक दिन देवकी से कहा– ‘मैं न पत्नी की रक्षा में समर्थ हूँ, न पुत्र के पालन में। कंस इतना निर्दय है, यह स्पष्ट हो चुका है। अत: क्यों ने अब हम संयम-पूर्वक रहते हुए श्रीहरि के भजन में लग जायँ। जीवन कितना भी लम्बा हो, इस कारागार में कट ही जायगा। शिशु-हत्याओं में हम क्यों निमित्त बनें।’ ‘मैं ही भाग्यहीना कुलक्षणी हूँ।’ देवकी बिलख उठी–‘मेरे ही कारण आपको ये दिन देखने पड़े। मेरा आपने हाथ पकड़ा और इस अभागिनी के साथ लगी विपत्ति आयी आपके समीप। कितने सुखी, कितने सम्मानित थे आप इसी मथुरा में।’ ‘देवी! इसमें तुम्हारा तो कहीं दोष नहीं है।’ वसुदेव जी ने अश्रु पोंछे। आश्वासन देने का प्रयत्न किया। ‘मैं उपवास करके प्राण त्याग दूँगी, यदि आप ऐसा कठोर निश्चय करेंगे।’ देवकी जी ने दोनों चरण पकड़ लिये वसुदेव जी के– ‘मैं चाहती हूँ कि जो आठवां आने वाला है, शीघ्र आ जाय। जितनी शीघ्र आ सकता हो, आवे। वह कंस को मार दे या कंस ही उसे मार डाले; किन्तु आपका यह संकट तो दूर हो। आठवें का आतंक नहीं रहेगा तो कंस के लिए आपको बन्दी बनाये रखना अनावश्यक हो जायेगा। वह हमें मथुरा में नहीं भी रहने देगा तो भगवती धरित्री का अंक बहुत विशाल है।’ ‘तुम्हीं ठीक कहती हो।’ कुछ क्षण मौन रहकर वसुदेवजी बोले– ‘सर्वेश्वर का जो विधान है, उसे कोई भी अन्यथा कैसे रह सकता है। उनकी इच्छापूर्ण हो।’ कंस के द्वारा भेजी गयी सेविकाओं की सेवा, उपचार सफल हो गया। देवकी जी शीघ्र स्वस्थ हो गयी थीं। लगभग पाँच महीने पीछे ही कंस को सेविकाओं ने समाचार दे दिया– ‘देवकी को दूसरा महीना चल रहा है।’ ‘अब उसकी सेवा-शुश्रुषा की आवश्यकता नहीं है।’ कंस ने सेविकाओं का कारागार में जाना बन्द कर दिया। केवल वसुदेव-देवकी के लिए आवश्यक आहार, उपकरण देने एक सेविका प्रतिदिन जाने लगी और उसे भी प्राय: बदलते रहने का नियम बन गया। वसुदेव जी प्रारम्भ से ही सेविकाओं में किसी से नहीं बोलते थे। देवकी जी भी अत्यन्त आवश्यक होने पर ही उनमें से किसी से कुछ कहती थीं। दम्पत्ति परस्पर ही बोलकर एक-दूसरे का दु:ख बंटाने का यत्न करते रहते थे। अन्तर्वत्नी होने पर भी देवकी जी ने वसुदेव जी सेवा में कभी शिथिलता नहीं आने दी। वे उनके वस्त्र दासी को नहीं धोने देती थीं। उनको जल भी उठकर नहीं लेने देती थीं। वसुदेव जी भी जानते थे कि रोकने से देवकी की वेदना बढ़ेगी। वे सहर्ष सेवा स्वीकार करते रहते थे। ‘वही आया है, मेरा लाल फिर आया है!’ अचानक अपने उदर पर हाथ फिराकर देवकी जी एक दिन तनिक प्रसन्न होकर बोलीं। दूसरे ही क्षण उनकी मुख-कान्ति बुझ गयी– ‘वैसा ही आलस्य, वैसी ही तन्द्रा मुझ पर फिर छा गयी है, किन्तु वह क्यों फिर इस दुखिया माता के ही उदर में आया? उसे जगत में दूसरी जननी नहीं मिलती? यहाँ इस कुक्षि से जन्म लेने पर उसे क्या कंस छोड़नेवाला है?’ वह समय भी आया। देवकीजी के मुख से जब प्रसव-वेदना के कारण चीख निकली, वसुदेव जी हड़बड़ी में उठ खड़े हुए। बड़ी कठिनाई से पीड़ा को दबाकर देवकी जी ने कहा– ‘आप मेरे समीप न आवें। दूसरी ओर मुख किये रहें। दुस्तर लज्जा मुझे अतिशय संकोच में डाले हैं; किन्तु यहाँ और कर भी क्या सकते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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