भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपनयन
‘खेद की कोई बात नहीं है। असमर्थ के लिए ही शास्त्र ने आपदधर्म का विधान दिया है।’ आचार्य ने प्रसन्नतापूर्वक उसी समय तारा बलादि देखकर उपनयन का उत्तम मुहूर्त निश्चित कर दिया। ‘राम-श्याम का उपनयन संस्कार होगा।’ माता देवकी की उमंग तो ठीक ही है, महाराज उग्रसेन को अपने जीवन का यह सबसे बड़ा महोत्सव लगता है। ‘भगवान वासुदेव अपने अग्रज के साथ ब्रह्मचारी के वेश में भिक्षाटन करेंगे।’ यादवकुल की नारियाँ, यदुवृद्ध ही नहीं, मथुरा के सम्पूर्ण नर-नारियों के हृदय इसी चिन्तन में लग गये हैं– ‘क्या डालेंगे वे उनकी भिक्षा की झोली में?’ सब अपनी-अपनी भावना के अनुसार तैयारी में लग गये हैं। वैसे उन त्रिभुवनके स्वामी को देने योग्य क्या है? लेकिन जब वे भिक्षा की झोली फैलायेंगे…..। अदभुत सज्जा है मण्डप की। इतना सुरंग, सात्विक विशद मण्डप और इतना कलापूर्ण। मथुरा के कला-निपुणों को वर्षों के पश्चात अवसर मिला है। सभी ने आन्तरिक अनुराग से अपना-अपना भाग सजाया है। धन्य हुई उनकी कला। ‘राम के उपनयन में आपको मातृपद का भाग लेना है।’ मंगल-स्नान के समय रोहिणी जी को प्रस्तुत न देखकर देवकी माता ने उन्हें ढूँढ़ा और अनुरोध किया। ‘राम भी तुम्हारा ही है।’ रोहिणी जी ने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया भाग लेना। ‘तुम दोनों का मातृत्व सम्हाल तो रही हो। मुझे रहने दो।’ ‘श्याम व्रजेश्वरी का नहीं है- व्रजरानी केवल उसकी पालिका है, तब राम ही उनका कैसे है? वे भी राम की केवल पालिका ही रहेंगी।’ माता रोहिणी का मनोमन्थन दूसरा कोई कैसे समझेगा। उनका निर्णय है– ‘नन्दरानी से अधिक वे कैसे स्वीकार कर लें। माता को गौरव-हाय, जब यह गौरव उन व्रज की देवी का नहीं है तो रोहिणी का भी नहीं है। देवकी के, दोनों देवकी के ही पुत्र हैं। इस दुखिया के बहुत पुत्र मारे गये। इसे सन्तानवती होने का सौभाग्य तो मिले।’ वे केवल दर्शिका रह गयीं महोत्सव की। सब जानते हैं कि रोहिणी जी सामान्य उत्सव के अवसर पर भी विषण्ण हो जाती हैं। वे व्रज से आयी हैं, तब से उदास रहती हैं। उन्हें आग्रह करके व्यथित करने का साहस किसी में नहीं। राम-श्याम तक ने अन्त में भी उनके सम्मुख भिक्षा लेने जाने का कार्य नहीं किया। श्रीकृष्ण जानते हैं माँ को–माँ के हृदय को। माता रोहिणी ने किसी कार्य में भाग नहीं लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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